Monday, December 31, 2012

नये साल की नयी सुबह

नये साल की नयी सुबह

नये साल की नयी सुबह
उत्‍साह नया ले आयी है,
मन में भरी उमंगें हैं,
दिल ने ली अँगड़ाई है।
 
बीता वर्ष दे गया हमको
यादें कुछ खट्‌टी मीठी,
ले गया साथ कुछ हँसते पल
चुभती है स्‍मृति फीकी।
 
गुज़र गया जो वक्‍त लौट फिर-
कहाँ कभी आता वह ?
साथ चला हो जो भी इसके
मंज़िल बस पासा वह।
 
हँसते गाते आओ हम सब
मिल कर कदम बढायें,
न्‍याय शांति औ ' समता का
जग में नित दीप जलायें।
 
रवि की नूतन किरणों ने
उर में नव आस जगायी है।
नये साल की नयी सुबह
उत्‍साह नया ले आयी है।

Friday, December 28, 2012

इंकलाब

इंकलाब

वतन में अब इंकलाब होते नहीं, क्यूँ,
दर्द की हद से गुज़रना क्या अभी बाकी है।

घुटन सीने में, आँखों में जलन, परेशान दिमाग,
इस सूरते हाल का बदलना क्यूँ अभी बाकी है।

वतन का पेट भरने वाले हैं तंगहाली में,
ख़ुदकुशी कितने किसानों की अभी बाकी है।

हम सभी बैठे हैं इन्तज़ार में किसी मसीहा के,
जगाना अंदर के मसीहा को अभी बाकी है।

कटते पेड़, गंदी नदियाँ, ज़हरीली हवा,
ज़िन्दगी में इनकी अहमियत क्या समझाना अभी बाकी है।

हौसला रख औ' किए जा यत्न सारे ,
मं
ज़िल का तेरे कदमों में आना अभी बाकी है।

Monday, December 17, 2012

कर्म

  कर्म

यह जग कर्म प्रधान।

कर्मवीर वसुधा को भोगे,
अकर्मण्य किस्मत को कोसे।
श्रम कर, व्यर्थ गवाँ न जीवन,
किस्मत लिख तू अपने कर से।
तुम बुद्धिमान, बलवान, विवेकी,
लक्ष्य करो अपना संधान।
यह जग कर्म प्रधान।

अपने-अपने कर्मों में रत
कुदरत के अवयव सारे,
सूर्य-ऊर्जा, धरा-अन्न,
जल-जीवन, श्वाँस-पवन दे।
तिनका-तिनका जोड़े पक्षी,
तब पाये विश्राम।
यह जग कर्म प्रधान।

शुभ कर्मों के बल पर जग में
राम-राज्य आ सकता है।
जन-जन का दुख हर, धरती को 
स्वर्ग बना सकता है।
बता गये कृष्ण गीता में
कर्म करो निष्काम।
यह जग कर्म प्रधान।

संचित कर्म फलित होते हैं,
भाग्य मनुज का बनता है।
सुख पाता संसार में आ,
या नित्य कष्ट सहता है।
कर्म बनाये मित्र-शत्रु
औ’ मिले मान-अपमान।
यह जग कर्म प्रधान।

जग से खाली हाथ चले जब,
कर्म साथ रहते हैं।
दुनियॉ वाले भले-बुरे
कर्मों को जाँचा करते हैं।
कर्म दिलाये स्वर्ग-नरक
औ’ कर्म मिलाये राम।
यह जग कर्म प्रधान।

Friday, December 14, 2012

अपनी सीमाओं को हमने

अपनी सीमाओं को हमने
 
अपनी सीमाओं को हमने

अपना हथियार बनाया है।
 
जग हँसा हमारी नियति देख,

कुछ देर कदम भी ठिठक गये,
फिर सोचा, समझा, बढ़े कदम,
कुछ दूर चले, फिर भटक गये।
अपनी नाकामी से भी हमने,
कुछ सीखा है, कुछ पाया है।
अपनी सीमाओं को हमने
अपना हथियार बनाया है।
 
अपनी कमियों को समझा,

अपनी क्षमताओं को परखा,
फिर तय की अपनी मंजिल खुद,
दृढ़ता से कदम उधर रखा।
मंजिल फिर कैसे ना मिलती,
जब सिर पर प्रभु का साया है।
अपनी सीमाओं को हमने
अपना हथियार बनाया है।
 
जग में है कोई पूर्ण नहीं,

सबकी अपनी सीमाएँ हैं,
फिर देख किसी की उपलब्धि
मन क्यों ललचाए, अकुलाए है।
रख नजर क्षितिज पर, जहाँ अभी तक 
कोई पहुँच ना पाया है।
अपनी सीमाओं को हमने
अपना हथियार बनाया है।

Tuesday, December 11, 2012

मैं निडर हूँ

मैं निडर हूँ

मैं निडर हूँ, अब किसी भी बात से डरता नहीं हूँ।
 
ज़िन्दगानी के सफ़र में,
लाख रोड़े हों डगर में,
अब न कोई फ़र्क पड़ता,
सामने तू दीख पड़ता।
हों अँधेरे लाख बाहर, फिक्र मैं करता नहीं हूँ।
मैं निडर हूँ, अब किसी भी बात से डरता नहीं हूँ।
 
फूल की है चाह ना,
अब शूल की परवाह ना,
नाम तेरा, आस तेरी,
नाव औ' पतवार मेरी।
तू ही माझी, अब भॅँवर की चाल से डरता नहीं हूँ।
मैं निडर हूँ, अब किसी भी बात से डरता नहीं हूँ।
 
जब से तूने बाँह थामी,
बदली मेरी ज़िन्दगानी,
तेरी करुणा का भिखारी,
मौन का मैं हूँ पुजारी।
अब भ्रमर की भाँति मैं हर डाल पर फिरता नहीं हूँ।
मैं निडर हूँ, अब किसी भी बात से डरता नहीं हूँ।
 
भाव अर्पित, कर्म अर्पित,
कर रहा सब कुछ समर्पित,
अब संभालो नाथ मुझको,
बस तुम्हारी आस मुझको।
अब तुम्हारी राह से मैं चाहता डिगना नहीं हूँ।
मैं निडर हूँ, अब किसी भी बात से डरता नहीं हूँ।

Thursday, December 6, 2012

जब तक साँसें हैं

जब तक साँसें हैं

जब तक साँसें हैं सीने में,
जी लो।
जब तक मय है मीने में,
पी लो।

माना दुनियाँ में गम हैं ढेरों यारों,
धूप छाँव का खेल यहाँ चलता रहता है।
लाख घना हो अँधियारा रातों का,
सुबह का सूरज भी रोज निकलता है।
बाँटो मत अपने ग़म,
आँसू पी लो।
जब तक साँसें हैं सीने में,
जी लो।

जीवन के हर इक पल में खुशियाँ ढूँढ़ो,
दीन, दुखी, मज़लूमों से नाता जोड़ो।
आस बनो उनकी जो जीवन से हारे हैं,
दीप बनो उनका, जिनकी राहों में अँधियारे हैं।
दिखे जहाँ अन्याय, मुखर हो,
होंठ मत सी लो।
जब तक साँसें हैं सीने में,
जी लो।

नारायण का अंश जीव है, ध्यान रहे,
उसकी सेवा ही जीवन का ध्येय रहे।
प्राणी मात्र में प्रभु को देखो, यही भजन है।
है प्रमाद ही मृत्यु, जागरण जीवन है।
जब तक जीवन है,
राम नाम रस पी लो।
जब तक साँसें हैं सीने में,
जी लो।

अक्सर ही ऐसा होता है

अक्सर ही ऐसा होता है

अक्सर ही ऐसा होता है,

जो दिखता है, ना होता है।

दृष्टि हमारी सम्मुख देखे,

भीतर की कुछ थाह मिले ना,

हँसने और हँसाने वाला,

मन ही मन में क्यूँ रोता है।

अक्सर ही ऐसा होता है,

जो दिखता है, ना होता है।

दिखता चेहरा एक सलोना,

बातें मधु औ’ मिश्री सी,

पर भीतर ही भीतर मन में

विष बेल बोता रहता है।

अक्सर ही ऐसा होता है,

जो दिखता है, ना होता है।


गम को भुलाने की खातिर

वो बैठा है मयखाने में,

मय उसको पीती है, मूरख

समझे मय को पीता है।

अक्सर ही ऐसा होता है,

जो दिखता है, ना होता है।


जिनकी खातिर जीवन बीता

आज वही ना पहचाने हैं,

बच्चों को भरने में खुद का

जीवन रीता रहता है।

अक्सर ही ऐसा होता है,

जो दिखता है, ना होता है।


सीमित अपनी शक्ति,

समझ न पाये उस असीम को,

अपने अपने कर्मों का फल

सबको देता रहता है।

अक्सर ही ऐसा होता है,

जो दिखता है, ना होता है।

Sunday, December 2, 2012

बचपन

बचपन
 

बचपन के दिन,

हँसते पल छिन,
याद बहुत हैं आते।
माँ की गोदी,
थपकी, लोरी,
प्यारी, मीठी बातें।

बाबूजी वटवृक्ष

घना साया था
उनका।
उसके नीचे
पलते थे हम,
सुखी कुटुम्ब था अपना।
याद अभी भी है उनका
अनुशासन,
उनकी बातें।
बचपन के दिन,
हँसते पल छिन,
याद बहुत हैं आते।

संगी साथी,

दिन भर मस्ती,
खेल खिलौने मिट्टी के।
कैरम, लूडो,
लुका छिपी,
छत पर गुड्डी भाक्कटे।
बीच बीच में
भूख लगे तो
घर आ रोटी खाते।
बचपन के दिन,
हँसते पल छिन,
याद बहुत हैं आते।

तन मन चंचल,

ना कोई चिन्ता,
भोला भाला जीवन।
जाने कहाँ
लुप्त हो गया,
जब से आया यौवन।
अब तो छत पर
काटा करते,
तारे गिन गिन रातें।
बचपन के दिन,
हँसते पल छिन,
याद बहुत हैं आते।

Tuesday, November 27, 2012

सुबहे बनारस

सुबहे बनारस

गंग की तरंग में उमंग भंग का भरा।
उठत, गिरत, बढ़त, थमत नाचती ज्यों अप्सरा।

भोर समय लहरों संग किरण रवि की खेलतीं।
लाल गेंद समझ जल में सूरज को हेरतीं।

सैलानियों को भर के नाव, लहरों पर तैरती।
चिड़ियों की पंख ध्वनि सन्नाटा चीरती।

धार बीच, जाल डाल, माझी गीत गाता है।
मंद शीतल पवन छुवन, तन मन पुलकाता है।

गंगा के घाटों पर हो रहा नहान है।
सुबहे बनारस की छटा नयनाभिराम है।

Friday, November 23, 2012

चरणामृत

चरणामृत
 
 श्री हरि के चरणों का अमृत,
गंगा केवल नदी नहीं है।
सदियों से बहती संस्कृति है,
केवल जलधार नहीं है।

सुनो कहानी आज,
गंगा के उद्भव की।
किंचित विस्मृत कर बैठे हम,
कथा वामन प्रभु की।

बाल रूप धर वामन प्रभु
पहुँचे राजा बलि के द्वार।
याचक विप्र समझ राजा ने
किया अतिथि सत्कार।

बोला प्रभु से, ‘बाल विप्र
क्या है तेरी अभिलाषा।
माँगो तज संकोच सब
दान मिलेगा मुँह माँगा।’

भूमि तीन पग माँगी प्रभु ने
राजा मन में मुसकाया।
छोटे-छोटे पैर तुम्हारे
इतने में क्या हेतु सधेगा।

हठ कर बैठे बाल रूप प्रभु
मुझे चाहिए इतना ही।
समझ न पाया प्रभु की इच्छा,
राजा ने हामी भर दी।

स्वीकृति पा राजा की प्रभु ने
देह धरा अत्यन्त विशाल।
पहले पग में नापी धरती
दूजे में सुरलोक विशाल।
 
 कदम तीसरा रखने को
कुछ भूमि बची न रिक्त।
मस्तक प्रस्तुत कर अपना
बलि ने पायी मुक्ति।

देव लोक में ब्रह्मा हरि की
लीला देख रहे थे।
प्रभु पद प्रक्षालन करने को
हर क्षण तैयार खड़े थे।

कदम दूसरा जैसे ही
हरि का पड़ा स्वर्ग लोक में।
पद पंकज प्रक्षालन कर, जल
संचित कर लिया कमंडल में।

बीते काल, भगीरथ ने
तप कर, ब्रह्मा से वर पाया।
हरि चरणामृत की धार वही
धरती पर ले आया।

उस प्रबल वेगवती धारा को
शिव ने जटाओं से मार्ग दिया।
बहती है तब से धरती पर,
जाने कितनों का उद्धार किया।

पर आज वही गंगा माँ,
हमसे कुछ कहती है।
बाँध दिया है हमने उसको,
मंद धार बहती है।

बहा रहे हम इसमें मल जल,
कूड़ा-कर्कट, मुर्दे, राख।
उद्योगों के बहें रसायन,
कपड़े धुलते धोबी घाट।

किसी कथा पूजा में जब हम
चरणामृत पाते हैं।
हाथ पसार ग्रहण करते,
सिर माथ चढ़ा लेते हैं।

कैसी दोहरी सोच समझ यह
कैसा है व्यवहार।
जीवन देने वाली माँ संग
ऐसा अत्याचार।

ध्यान रहे, यदि इस धरती पर
गंगा नहीं रहेगी।
जन जीवन नहीं बचेगा,
धर्म संस्कृति नहीं रहेगी।

गंगा माँ की खातिर हमको
पुनः भगीरथ बनना होगा।
गंदा न करें, न करने दें,
ऐसा प्रण करना होगा।

गंगा मइया माफ़ करें,
हम बुद्धिहीन, मतिमूढ़।
डाल वही हैं काटते,
जिस पर हैं आरूढ़।

हे पाप नाशिनी गंगा माँ,
दो जन को सुविचार।
विचलित औ' शर्मिन्दा हूँ,
मैं तेरी दशा निहार।

Tuesday, November 20, 2012

हे वीर सैनिकों तुम्हें नमन

हे वीर सैनिकों तुम्हें नमन

धरती पर और अम्बर में,
पर्वत पर और समन्दर में,
हो डटे राष्ट्र की रक्षा में,
हे वीर सैनिकों तुम्हें नमन।

दिवस हो कि रात हो
हिम, शीत, झंझावात हो,
रेत का गुबार हो,
वर्षा की मार हो,
कदम कभी डिगे नहीं,
नजर कभी हटे नहीं,
सरहदें बची रहें,
हम रहें कि ना रहें,
ऐसे अविचल, दृढ़ प्रतिज्ञ
सीमा के वीरों तुम्हें नमन।
हे वीर सैनिकों तुम्हें नमन।

जाने कितनी ऋतुएँ बीतीं,
बीत गये तीज त्योहार,
माँ, बाबू और बीबी बच्चे,
रस्ता देख रहे घर द्वार।
सबसे च्युत, कर्तव्य मार्ग पर
चलते तुम अविकल, अविराम,
हो निश्चिन्त तुम्हारे दम पर
कर पाते हैं हम विश्राम।
है कृतज्ञ यह राष्ट्र तुम्हारा
करता शत कोटि नमन।
हे वीर सैनिकों तुम्हें नमन।

Sunday, November 18, 2012

सागर

सागर
 

रेतीले तट पर खड़ा हुआ,
मैं हतप्रभ सम्मुख देख रहा।
है दृष्टि जहाँ तक जाती दिखता,
नीली लहरों का राज वहाँ।

उस पार उमड़ती लहरों का
आलिंगन करता नभ झुक झुक कर।
रवि बना साक्षी देख रहा
करता किरणों को न्योछावर।

सागर की गहराई कितनी,
कितने मोती, माणिक, जलचर
कितनी लहरें बनती, मिटतीं,
बेला से टकरा टकरा कर।

लहरों की गोदी में खेलें,
नौकाएँ मछुआरों की।
आती जाती लहरें तट का
पद प्रक्षालन कर जातीं।

Saturday, November 10, 2012

दीवाली

दीवाली

जग मना रहा दीवाली।

सजी हुई है हर घर के
आँगन में दीपों की लडि़याँ।
बच्चों के इक हाथ मिठाई
औ’ दूजे में फूलझडि़याँ।
श्री-गणेश की अगवानी को
है सजी हुई पूजा की थाली।
जग मना रहा दीवाली।

छाया चारों ओर उजाला,
दिखता नहीं कहीं अँधियारा।
मन में फिर क्यूँ अंधकार हो,
निर्मल, निश्छल, निर्विकार हो।
हर्षित जन-जन, लगती है
यह जगमग रात निराली।
जग मना रहा दीवाली।

किसी दीन की कुटिया में भी
चलो चलें इक दीप जलाएँ।
हारे, थके, दुखी जीवन में,
आशा की इक जोत जगाएँ।
दे कर के मुस्कान किसी को
सफल करें अपनी दीवाली।
जग मना रहा दीवाली।

Friday, November 9, 2012

वक्त

वक्त

वक्त 
एक ऐसी नदी है,
जिसमें,
सब कुछ बह जाता है।
आदमी,
उसका नाम,
उसके काम,
यहाँ तक कि
सारी कायनात।
बचता है तो सिर्फ़
वक्त।
वही सृजन करता है,
पालता है
और
एक दिन
ले लेता है
अपने आगोश में
सबको।
सुन सको तो सुनो
उसकी आवाज़ ,
पहचान सको तो पहचानो
उसको,
क्योंकि वही है
जीवन का सार,
आद्यन्त हीन।
बाकी सब
उसके खेल खिलौने हैं,
क्षणभंगुर।

अमन कैसे रहे

अमन कैसे रहे

परेशान है हर शख्स, अमन कैसे रहे।
लगी हो आग तो खुशहाल चमन कैसे रहे।

भूख, गरीबी बेकारी से ,
मँहगाई, बीमारी से ,
सत्ता के भ्रष्टाचारों से ,
ताकतवर के व्यभिचारों से ,
हैरान है हर शख्स, अमन कैसे रहे।
परेशान है हर शख्स, अमन कैसे रहे।

जहाँ श्रम सीकर का मोल नहीं,
सुनता कोई गरीब के बोल नहीं,
पूँजी के हाथों न्याय बिके,
जाति धर्म में बँटा समाज दिखे,
जहाँ कुंठित हो जन जन का मन, अमन कैसे रहे।
परेशान है हर शख्स , अमन कैसे रहे।

खिलने से पहले ही जहाँ ,
कलियाँ मुरझा जाती हों।
उड़ने से पहले पंछी के
पर काट लिए जाते हों।
जहाँ सपनों को कुचला जाए, अमन कैसे रहे।
परेशान है हर शख्स , अमन कैसे रहे।

Thursday, November 8, 2012

निशि दिन ढूँढ़ूँ चरण तुम्हारे

निशि दिन ढूँढ़ूँ  चरण तुम्हारे

 निशि दिन ढूँढ़ूँ चरण तुम्हारे।
अब तो शरण लो नाथ हमारे।

तेरी इस दुनियाँ में मिलता
है सब कुछ बस प्यार नहीं,
सजा धजा ये मेला मेरे
मतलब का बाज़ार नहीं।
अंतर का एकाकीपन
तेरी अपलक राह निहारे।
आन बसो मोरे प्यारे।

साँसें सीमित, सपने अनगिन,
पूरे नहीं हो पाते,
फँसे भँवर में माया के हम,
ऊब, डूब, उतराते।
काटो मोह, पार करो नैया,
विनती करूँ मैं साँझ सकारे।
अब तो दरस दो नाथ हमारे।

गज़ल - तुम्हें ढूँढ़ते

गज़ल 

तुम्हें ढूँढ़ते हम ज़माने में हारे । 
मिले नाथ आखिर हृदय मे हमारे।

मैं चलता रहा आज तक जिसके दम पर,

वो ताकत तुम्हारी ही रहमत थी प्यारे।

विचारों के, कर्मों के प्रेरक तुम्ही थे,

तुम्हीं से हुए पूरे संकल्प सारे।

रहे साथ चलते, सखा भाव से तुम,

न पहचान पाया, मुकद्दर हमारे।

ये साँसें तुम्हारी अमानत हैं मालिक,

करूँ आज खुद को हवाले तुम्हारे।

मुक्तक

मुक्तक  

(1)
मैं तुझमें फ़ना हो जाऊँ सनम,
ये अंजामे मुहब्बत मेरा हो।
बच रहें निशाँ कुछ क़दमों के ,
जिन्हें देख ज़माना इश्क करे।

(2)

आयी जो तेरी याद तो हम रो लिए कभी,
तेरी नज़दीकियों के एहसास ने कभी मुझको हँसा दिया। 
हैरान हूँ मैं आज खुद अपने ही हाल पर,
तेरे इश्क ने मुझे कैसा दीवाना बना दिया।
    

ओ जाने वाले

ओ जाने वाले

ओ जाने वाले, बार बार मन
तुमको पास बुलाता है।

तुम कहाँ गये कुछ पता नहीं,
आती है कोई सदा नहीं,
हर आहट आस जगाती है, 
नज़रें दर पर टिक जातीं हैं,
अगला पल सूना होता है,
सब कुछ मन का बस धोखा है,
मैं जितना इसको समझाता,
यह और विकल हो जाता है।
ओ जाने वाले, बार बार मन
तुमको पास बुलाता है।

अपने सुख दुख सब साझे थे,
इक दूजे के बिन आधे थे,
कुछ ऐसा घूमा काल चक्र,
इक पलक झपी, तुम बिछुड़ गये।
जीवन की आपा धापी से,
जब भी कुछ वक्त निकलता है,
घेरे लेती है याद तेरी,
मन गुमसुम सा हो जाता है।
ओ जाने वाले, बार बार मन
तुमको पास बुलाता है।

ये कैसा संसार बनाया,
राग द्वेष व्यवहार बनाया,
दूर किया अपने से, उपर
माया का पहरा बैठाया।
अंतहीन ये जिज्ञासाएँ,
अंतहीन ये अभिलाषाएँ,
इनको पूरा करते करते
जीवन सारा चुक जाता है।
ओ जाने वाले, बार बार मन
तुमको पास बुलाता है।


Wednesday, November 7, 2012

गज़ल - बन्धनों से अब मुझे

गज़ल

बन्धनों से अब मुझे उपराम कर मेरे सखा, 
मुक्त हो आकाश में निर्भय विचरना चाहता हूँ।

बाँध कर घुँघरू, जगत की ताल पर नाचा बहुत,
तोड़ सारे बंध अब, प्रिय को रिझाना चाहता हूँ।

गा चुका मैं गीत सारे, पर न भाया कुछ तुम्हें,
मन की वीणा की नयी इक धुन सुनाना चाहता हूँ।

साँस जब तक साथ देगी, मैं लड़ूँगा आँधियों से,
मैं खुदी को बन्दगी का शै बनाना चाहता हूँ।

इतनी ताकत, इतनी हिम्मत, इतनी दौलत दे मुझे,
मैं सभी के ज़ख्म पर मरहम लगाना चाहता हूँ।

इस होली

इस होली 
 

ओ श्याम!
इस होली,
रंग दे मुझको,
अपने रंग में।
ना रहूँ मैं,
ना मेरी कोई पहचान।
हकीकत भी यही है।
मैं तेरी हूँ,
तुझसे हूँ,
मेरा तेरा सम्बन्ध ही
एकमात्र सत्य है।
चिर है।

कविता

कविता

जब जब याद तुम्हारी आती,
एक नयी कविता बन जाती।
विरह वेदना व्याकुल होकर,
लिख जाती प्रियतम को पाती।

रोते रोते अँखियाँ सूखीं,
अपलक तेरी राह निहारें।
कौन दिवस लोगे सुधि मोरी,
प्राणों के आधार हमारे।

रुद्ध कंठ कुछ कह ना पाते,
कलम वेदना है लिख जाती।
जब जब याद तुम्हारी आती,
एक नयी कविता बन जाती।

Tuesday, November 6, 2012

गज़ल - प्यार की बात करें

 गज़ल 

प्यार की बात करें, नेह की बरसात करें।
गिरा के बीच की सब दीवारें, इन्सानियत की बात करें।

इन्सानी रिश्तों के बीच जमी बर्फ़ तभी पिघलेगी,
खुले दिमाग से मिल बैठ के जब बात करें।

कहो कुछ तुम भी, कुछ हम भी अपनी बात कहें,
रहें कुछ दूर भले, हँस के मुलाकात करें।

खुदा ने बख्शी है हमें नेमत चन्द साँसों की,
गिले शिकवों में न वक्त को बरबाद करें।

गज़ल - मेरी माँ अब भी ज़िन्दा है

  गज़ल
 
मेरी माँ अब भी ज़िन्दा है, भले उसका बदन न हो,
मैं उसके साथ हूँ न हूँ, वो मेरे साथ रहती है।

वही कहता हूँ मैं, जो खुद महसूस करता हूँ,
सदा मैं सुन नहीं सकता, दुआ पर साथ रहती है।

हवा की शक्ल औ‘ सूरत कभी देखी है क्या तुमने,
भले वो दिख नहीं सकती, हमेशा साथ रहती है।

नदी है ज़िन्दगी अपनी, इसे कब बाँध सकते हैं,
समंदर की ये बेटी है, उसी की ओर बहती है।

बयॉँ हो हर खुशी लब से, ये नामुमकिन है,
नशा हो जाए जब उसका, जु़बॉँ चुपचाप रहती है।

अरे नादाँ, कभी उसका शुक्रिया भी कह,
हमेशा तेरे लब पे इक नयी फ़रियाद रहती है।

मैं पथिक

मैं पथिक

मैं पथिक अविरल चरण चलता रहूँ।
रंग में तेरे सदा ढलता रहूँ।

राह दुर्गम हो भले ही प्रेम की
ले तेरा अवलम्ब मैं बढ़ता रहूँ।

नागफनियों की चुभन झेलूँ मगर,
बन सुमन तव पाद तल चढ़ता रहूँ।

साँस में तेरी सुरभि हो, नाम तेरा,
नयन संपुट रूप रस छकता रहूँ।

गज़ल - मैं हर इक तूफान से जम कर लड़ा हूँ

गज़ल

मैं हर इक तूफान से जम कर लड़ा हूँ।
थाम कर मैं वक्त की उँगली खड़ा हूँ।

क्या बिगाडेगा ये जमाना मेरा
अपने मालिक की पनाहों में खड़ा हूँ।

बन उजाला, मैं अँधेरों से लड़ा हूँ,
धार बन, पत्थर हटा, आगे बढ़ा हूँ ,

आग बन मैने जलाया है विकारों को ,
फौलाद बन मैं जुल्म के आगे खड़ा हूँ।

अब न मुझको दूर करना ऐ मेरे बंदा नवाज,
मै तुम्हें पाने को जन्मों तक लड़ा हूँ।

Sunday, November 4, 2012

जाड़े के छंद

जाड़े के छंद

कई दिनों के बाद आज फिर धूप खिली है।
कुहरे की चादर से जग को मुक्‍ति मिली है।
 
बैठे आँगन में सब खायें छान पकौड़ी।
बीच बीच लें चाय की चुस्‍की थोड़ी थोड़ी।
 
बर्फीली पछुआ है सबके हाड़ कँपाती।
दीन, हीन, बूढ़े, बच्‍चों को खूब सताती।
 
कभी कभी सारा दिन बीते, कुहरा छाया रहता है।
सूरज जैसे ओढ़ रजाई, अलसाया सा रहता है।
 
गली, मुहल्‍ले, चौराहों पर जले अलाव हैं।
घेरे बैठे ताप रहे सब हाथ पाँव हैं।
 
नये नये फल औ' सब्‍जी से मंडी पटी हुई है।
क्रिसमस और नये साल की मस्‍ती चढ़ी हुई है।
 
आओ कुछ उनकी भी सुधि लें, जो गरीब, बेघर हैं।
धरती है जिनकी शैया और छत अम्‍बर है।
 
कुछ गर्म वस्‍त्र उनको भी दें, जितनी हो शक्‍ति हमारी।
शीत ऋतु होती है, सब ऋतुओं पर भारी।

मन मुदित नाचे आज है

मन मुदित नाचे आज है

मन मुदित नाचे आज है।
बिन मेघ के बरसात है।
जीवन में जब से आये प्रिय,
गाता हृदय नव राग है।
अब प्रश्‍न है कुछ शेष ना,
दूजा कोई उद्‌देश्‍य ना,
तुम मिल गये, सब मिल गया,
अब शेष है कुछ क्‍लेश ना।
उत्‍फुल्‍ल मन बिन पंख के
अब नापता आकाश है।
मन मुदित नाचे आज है।

दृग देखना तुम्‍हें चाहते,
अधरों पर तेरा नाम है।
मन में भरा अनुराग है,
पुलकित हुआ हर रोम है।
बसिये मेरे मन में सदा
यह आपका आवास है।
मन मुदित नाचे आज है।

बिखरा अधर पर हास है।
मन में भरा उल्‍लास है।
तन वल्‍लरी विचकित परम
हर रोम में मधुमास है।
मधुमास यह चिर हो, सतत हो,
बस इक यही अब साध है।
मन मुदित नाचे आज है।

Saturday, November 3, 2012

गज़ल - आओ मिल बैठ कर

गज़ल

आओ मिल बैठ कर कुछ जि़न्‍दगी की बात करें।
क्‍यूँ न हम आज इक नयी शुरुआत करें।
 
लड़ रहे हैं मुद्‌दत से मगर हुआ न कुछ हासिल,
भुला कर गिले शिकवों को, दोस्‍ती की बात करें।
 
सफ़र में तुम भी हो साहब, सफ़र में हम भी हैं,
हँसी खुशी ये गुज़र जाए, वो करामात करें।
 
सियाह रात है पसरी, नज़र न कुछ आता,
दिया जलाओ तो पहले, फिर सहर की बात करें।
 
हम यहाँ उलझे हैं उन चीजों में, जो अपनी ना हैं,
आओ पहचान करें खुद से, खुद की बात करें।

Sunday, June 24, 2012

शहर पसारे पाँव

शहर पसारे पाँव

शहर पसारे पाँव,
सिकुड़ते गाँव।

हाकिम पहुँचे चौपालों पर,
एक नया फ़रमान लिए,
ले लो यह नोटों की गड्डी,
अब ग्राम भूमि सरकारी है।
यहाँ बनेगी फ़ैक्टरी,
अस्पताल, स्कूल,
सबको काम मिलेगा भइया,
दुर्दिन जाओगे भूल।
खेती, खलिहानी सब छूटी,
फूले हाथ, पाँव।
शहर पसारे पाँव,
सिकुड़ते गाँव।

भूपतियों से इतर गाँव में
ऐसे भी थे,
सरकारी खसरों में जिनके
नाम नहीं थे।
कहलाते मज़दूर,
गाँव में ही रहते थे,
खेतों में मज़दूरी करके
जीवन यापन करते थे।
कौन सुने अब उनकी पीड़ा,
कहाँ मिलेगी ठाँव।
शहर पसारे पाँव,
सिकुड़ते गाँव।

उद्घाटन को मंत्री आये,
साथ में मेला ठेला था,
सरकारी वादे थे लेकिन,
गाँव का एक न धेला था।
उस पर, यह क्या, बनते दिखते,
फ्लैट, इमारत आलीशान,
मंहगे होटल, शॉपिंग मॉल,
जहाँ बसें शहरी धनवान।
जाने कब तक छला करेगा,
गाँवों को सरकारी दाँव।
शहर पसारे पाँव,
सिकुड़ते गाँव।

Saturday, June 23, 2012

माँ की गोद

माँ की गोद

माँ, तेरी गोदी में सिर रख
फिर रोने को दिल करता है।

जब से है छूटा साथ तेरा,
जग सूना सूना लगता है।
हर चीज बेगानी लगती है,
हर ख्‍़वाब अधूरा लगता है।
माँ, तेरी गोदी में सिर रख
फिर रोने को दिल करता है।
 
तेरी यादों में दिन बीते,
तेरे सपनों में रात कटी,
तेरी सीखों का दिया मेरा
जीवन पथ रौशन करता है।
माँ, तेरी गोदी में सिर रख
फिर रोने को दिल करता है।

तुम कहती थी जग धोखा है,
दिखने में लगता चोखा है।
माँ, तेरे साथ जिया हर पल
नयनों में तैरा करता है।
माँ, तेरी गोदी में सिर रख
फिर रोने को दिल करता है।

गज़ल - फिसलन भरी डगर में


गज़ल 

फिसलन भरी डगर में, कहीं मैं भटक न जाऊँ
ऐ रब मुझे बचाना, डरने लगा हूँ मैं।

तेरे इश्क में दीवाना, यूँ ही रहूँ हमेशा,
मेरे सामने ही रहना, तेरे सामने हूँ मैं।

जीने नहीं है देती, दुनिया किसी तरह से
तेरे हर इक करम पे, मरने लगा हूँ मैं।

बाहर की मौज झूठी, भीतर का मौन सच्चा
अब कर नजर इनायत, सँवरने लगा हूँ मैं।

जब तक रहूँ सफर में, मेरी बाँह थामे रखना,
दुनिया के इस भरम में, भटकने लगा हूँ मैं।

Friday, June 22, 2012

शेर

शेर
 
ख़्वाहिशों में मसरूफ़, दो पल, खुद के लिए भी निकाल,

क्या जिया, अगर दो पल, अपने लिए न जी पाया।

मौत

   मौत

अब न बाकी है कोई दर्द ज़माने वाला,
वक्त ये जाने कहाँ हमको ले आया है।
हर तरफ़ बिखरा है नूर तेरी रहमत का,
सुकूँ है, फ़िक्र का न कोई साया है।

याद कर-कर के मुझे रोना न ऐ दुनियॉँ वालों,
ज़िन्दगी की यही इक, बस यही सच्चाई है।
भटक रहा था यहॉँ मैं, न जाने कब से,
मेरे मालिक को मेरी आज याद आई है।

चंद लमहों के मुसाफ़िर थे, ये भूल गये,
दिल लगा बैठे, फ़र्ज़ अदा करते करते।
अब तो सोने दो सुकूँ से, न छेड़ो कोई,
थक गया ज़िन्दगी का कर्ज़ अदा करते करते।

प्रभु, तुम बिन विश्राम नहीं

प्रभु, तुम बिन विश्राम नहीं

प्रभु, तुम बिन विश्राम नहीं।

मानुस जनम अकारथ कीजो,
आयो किसी के काम नहीं।

पंचभूत तन सब जग जाना,
की निज से पहचान नहीं।

साबुन तेल लगा तन पोसा,
मन के कलुष का भान नहीं।

मन्दिर तीरथ खोजी मूरत,
दी दीन दुखिन्ह मुसकान नहीं।

जग की जगमग में मन रमता,
आवत मुख हरि नाम नहीं।

                   

हर रंग तुम्हारा है

हर रंग तुम्हारा है

हर रंग तुम्हारा है।
हर राग तुम्हारा है।

देखूँ मैं जिधर भी अब,
तेरा ही नज़ारा है।

इन्सान की क्या हस्ती
ग़र तेरा न सहारा है।

क्यूँ लड़ते रहे अब तक,
क्या मेरा तुम्हारा है।

भूला हुआ है तुझको
किस भ्रम में बेचारा है।

इक तू ही मेरी मंज़िल,
तेरा ही सहारा है।

अब तेरे हवाले हम,
कर, जो तुझको गवारा है।

नारी विमर्श

नारी विमर्श

जीना है तो लड़ना होगा।
बढ़ना है तो पढ़ना होगा।

कठिन है डगर,
राह मुश्किल मगर,
ठान ले तू अगर,
कुछ भी मुश्किल नहीं।
आस का दीप ले,
मन में विश्वास भर,
तू चलेगी तो सुखद,
जायेगी बन डगर।
धैर्य छूटे नहीं,
मन भी टूटे नहीं,
गिर भी जाये अगर
फिर संभलना होगा।
जीना है तो लड़ना होगा।
बढ़ना है तो पढ़ना होगा।


तुझसे ही है,
यह जग जन्मा,
पाया पहला पोषण
तेरी ममता की बूँदों से।
तेरी छाती से सट कर ही,
पहली धड़कन पाई,
प्रथम गुरु बन कर तूने ही,
जग को राह दिखाई।
जग को संबल देने वाली,
अबला कैसे हो सकती है।
इस विचार को तजना होगा,
प्रण कर आगे बढ़ना होगा।
जीना है तो लड़ना होगा।
बढ़ना है तो पढ़ना होगा।


तुझ पर अंकुश रख
आज़ादी की
बात सोचना बेमानी है।
तेरा हक हर, विकास की
पूरी नहीं कहानी है।
याची-दीन छवि को तेरी
देख भले जग मुसकाता है,
तेरी तनी भृकुटि से लेकिन
थर्राता-घबराता है।
जग है तेरा ऋणी,
तुझे क्या देगा।
जग को राह दिखानी है तो,
तुझको आगे आना होगा।
जीना है तो लड़ना होगा।
बढ़ना है तो पढ़ना होगा।

पिया सुधि

  पिया सुधि

पिया सुधि बिसरत नाहीं।

आठों याम नाम जपे रसना,
नैनन नीर रुकत अब नाहीं।

तुम बिन विकल, कहाँ मैं ढूँढ़ूँ,
बसो मम अन्तर माहीं।

रूप अनूप लखूँ दिन राती,
रोम-रोम पुलकाहीं।

पाप-ताप हर, चरण में राखो
और अनुग्रह नाहीं।

मन अनुरागी

मन अनुरागी
 
मन अनुरागी, तन संसारी,
मेरा है गिरधारी।
पूरी अभी बहुत हैं करनी,
मुझको ज़िम्‍मेदारी।

तुमने ही संसार बनाया,
औ' रिश्‍तों का ताना-बाना।
व्‍यथित-भ्रमित मन-बुदि्‌ध, न सूझे
आखिर मुझे कहाँ है जाना।

इस जग की है राह कठिन प्रभु,
राग-द्वेष के मोह-पाश में,
हो जाती है भूल-चूक औ'
अनचाहे अपकर्म बहुत से।

पाप हरो प्रभु, तुम ही मुझको
सच्‍ची राह दिखाओ।
बन कर रथी मेरे अन्‍तर के
मुझको भव पार कराओ। 

मन हो निर्मल, दीप जले प्रभु
इसमें तेरी भक्‍ति का।
दो वर, विकल बुदि्‌ध को मेरी
तव चरणों की आसक्‍ति का।

माँ की याद

माँ की याद

माँ, याद तुम्‍हारी आई।

कभी रुलाती, कभी समझाती,
जीने की है राह बताती,
कभी तुलसी का चौरा लगती,
कभी मानस की चौपाई।
माँ, याद तुम्‍हारी आई।
 
जब-जब मेरे कदम डिगे,
आगे बढ़ तुमने थाम लिया,
धीरज धर आगे बढ़ने की
बात हमेशा सिखलाई।
माँ, याद तुम्‍हारी आई।

अपने ग़म-आँसू दबा छिपा,
दी दूर-दृष्‍टि की सीख हमें।
दया, धर्म, करुणा, क्षमा
की मूरत थी तू माई।
माँ, याद तुम्‍हारी आई।

मुझे गर्व है तुम जैसी
माता का बेटा होने पर,
देती है तेरी याद बढ़ा,
इस छाती की चौड़ाई।
माँ, याद तुम्‍हारी आई।

कभी-कभी सपने में आ,
मुझको दर्शन दे जाना माँ।
है पता मुझे, अब सच में तू
नहीं पड़ेगी दिखलाई।
माँ, याद तुम्‍हारी आई।

माँ

माँ

माँ!

मैं तुम्‍हें देख नहीं सकता,
सुन नहीं सकता,
छू भी नहीं सकता,
पर अनुभव कर सकता हूँ।
 
माँ, तुम हो मेरे तन-मन के अणु-अणु में,
मेरी धमनी में बहने वाले
लोहू के कण-कण में,
मेरी मति, गति और वृत्‍ति में।
 
माँ, क्षमा करो अपने प्रति मेरे अपराधों को
जो हुए हों मुझसे,
जाने-अनजाने में,
मन, वचन या कर्म से।
  दो चिर्‌ आशीष।

श्री हरि से है निवेदन,
दें तुम्‍हें शरण
अपने चरण में।
दें दिव्‍य मोक्ष।

श्री विष्‍णवे नमः।
श्री विष्‍णवे नमः।
श्री विष्‍णवे नमः।

पहेली

पहेली

भारत में है बोली जाती,
मेरे मन को खूब है भाती।
पाँच अक्षर का उसका नाम,
उल्टा सीधा एक समान।

                       
                    उत्तर - मलयालम                       

दोहा

दोहा

हाथ हाथ पर धरि रहे, बैठ भरोसे भाग।
करमहीन ते नरन के, हाथे ना कछु लाग।

गज़ल - देखे हैं हमने ज़िन्दगी के

गज़ल
 देखे हैं हमने ज़िन्दगी के रूप कई, अंदाज़ कई।
है हसीं ख्वाब कभी तो कभी इक जंग है ये।

किसी के लब पे तवस्सुम खिला कर देखो।
सुकून पाने का अपना तो अजब ढंग है ये।

सरे जहान ये लगता है कि मैं तनहा हूँ।
है न कुछ और, यादों का तेरी रंग है ये।

जहाँ में आ के न छोड़ कभी कश्ती--उम्मीद।
यकीन कर, मिलेगी मंज़िल, गर संग है ये।

मौत आये भी तो गम नहीं है मुझको।
आखिर इस ज़िन्दगी का अंग है ये।

शेर

शेर

ख्वाब बन के रह गयीं मेरे दिल की तमन्नाएँ,
इस जहाँ में ठोकरों के सिवा कुछ न रहा।
..........

क्यूँ अब ये दुनियाँ मुझसे वास्ता रखे,
इस जहाँ में मेरा बचा ही क्या है।
.........

सारा जग मुझसे आँख चुराता है क्यूँ,
शायद मतलब निकल गया है, इसलिए।
.........

तनहाई--शब में जब दुनियाँ तमाम सोती है।

जागता हूँ मैं औ' ये आँख मेरी रोती है।

मुक्तक

मुक्तक

ऐ दूर खड़े हो मंज़िल निहारने वाले,
मेहनत कर के देख वो तेरे कदम चूमेगी।
शोभा नहीं देता तुझे ऐसे बैठ रहना,
है जन्म हुआ तेरा, ये कर्म के लिए ही।

..............

खाई-ए-दुश्मनी भी पाट लेते हैं,
ये दुनियाँ वाले मतलब पे अक्सर।
धरमो-करम की तवज्जो है खाक से न ज़्यादा,
ईमां भी बेच लेते हैं ये मतलब पे अक्सर।

.............

न कार्य कोई है कठिन,
यदि ठान लेते हम उसे।
हाँ, अथक श्रम से है ना
हम साध लेते किसे।

............

गम नहीं हैं कम यहाँ खुशियों से कहीं,
सब तरफ़ परेशानियाँ हैं तज़ुर्बा मेरा।
इन परेशानियों से जो घबराये, चुक गये,
है इनसे जूझना ही सही, तज़ुर्बा मेरा।

..........

दीप जले रे, दीप जले रे।
सबके घर आँगन में दीप जले रे।
सबके दामन में खुशियाँ फैलें,
शान्ति का चतुर्दिक दीप जले रे।

..........

हर एक ज़र्रे में बसी है याद तेरी,
भुलाना चाहूँ भी तो मैं तुमको भुला नहीं सकता।
कदम कदम पे याद तेरी आती है,
अश्क बहते हैं फिर खुद ही सूख जाते हैं।

शिक्षक की प्रतिज्ञा

शिक्षक की प्रतिज्ञा

आओ करें हम आज प्रतिज्ञा,
फैलायेंगे जग में विद्या।

बच्चों को सद्मार्ग दिखायें,
उन्हें नेक इन्सान बनायें,
धीर वीर विद्वान बनायें,
पार लगे जीवन की नैया।
आओ करें हम आज प्रतिज्ञा,
फैलायेंगे जग में विद्या।

जग ने हमको मान दिया है,
प्रभु से ऊँचा स्थान दिया है,
आओ करें  कुछ उससे ज्यादा,
ऊँची हो भारत की ग्रीवा।
आओ करें हम आज प्रतिज्ञा,
फैलायेंगे जग में विद्या।

Wednesday, June 20, 2012

माँ! शक्ति हमें दे

माँ! शक्ति हमें दे

माँ!
शक्ति हमें दे,
भक्ति हमें दे,
चरणों में आसक्ति हमें दे।
माँ!

अंतर्मन का अंधकार हर ,
बहा ज्ञान-गंगा की धारा,
हो कर्तव्य बोध जन जन में
टूटे व्यर्थ अहं की कारा।
विषय मोह की काट बेड़ियाँ,
जीवन पथ आलोकित कर दे।
माँ!
शक्ति हमें दे,
भक्ति हमें दे,
चरणों में आसक्ति हमें दे।
माँ!

मुझमें इतनी शक्ति नहीं माँ,
तेरी महिमा मैं गा पाऊँ,
मैं अज्ञानी बालक तेरा
सच्चे मन से शीश नवाऊँ।
कर पाऊँ मैं तेरे दर्शन,
ऐसी अद्भुत दृष्टि हमें दे।
माँ!
शक्ति हमें दे,
भक्ति हमें दे,
चरणों में आसक्ति हमें दे।
माँ!

यूं न उड़ाकर ले जाओ

यूं न उड़ाकर ले जाओ

हवाओं!
यूं न उड़ाकर ले जाओ
बादलों को मेरे शहर से।
मुद्दतों बाद ये फिर आज नजर आये हैं,
प्यासी धरती की आस बन के छाये हैं।
खेत मे किसान-
माथे पर हाथ रख;
देखता आसमान,
चिन्तित, किन्तु आशावान;
दीख पड़ता मेघ का कोई एक टुकडा,
दीप्त होती क्षीण आशा;
स्वप्न तिर जाते नयन में-
असंरव्य।
करता परिश्रम,
बहाता पसीना,
धीरे-धीरे अपने पंखों से इन्हें नीचे उतार
भर दो हर खेत,गली, कुन्ज, द्वार....
बरसा दो जीवन-
सपने हो सकें पूरे;
जन-जन के तन-मन को
पुलकित कर दो....
हवाओं!
यूं न उड़ाकर ले जाओ
बादलों को मेरे शहर से।