Friday, November 23, 2012

चरणामृत

चरणामृत
 
 श्री हरि के चरणों का अमृत,
गंगा केवल नदी नहीं है।
सदियों से बहती संस्कृति है,
केवल जलधार नहीं है।

सुनो कहानी आज,
गंगा के उद्भव की।
किंचित विस्मृत कर बैठे हम,
कथा वामन प्रभु की।

बाल रूप धर वामन प्रभु
पहुँचे राजा बलि के द्वार।
याचक विप्र समझ राजा ने
किया अतिथि सत्कार।

बोला प्रभु से, ‘बाल विप्र
क्या है तेरी अभिलाषा।
माँगो तज संकोच सब
दान मिलेगा मुँह माँगा।’

भूमि तीन पग माँगी प्रभु ने
राजा मन में मुसकाया।
छोटे-छोटे पैर तुम्हारे
इतने में क्या हेतु सधेगा।

हठ कर बैठे बाल रूप प्रभु
मुझे चाहिए इतना ही।
समझ न पाया प्रभु की इच्छा,
राजा ने हामी भर दी।

स्वीकृति पा राजा की प्रभु ने
देह धरा अत्यन्त विशाल।
पहले पग में नापी धरती
दूजे में सुरलोक विशाल।
 
 कदम तीसरा रखने को
कुछ भूमि बची न रिक्त।
मस्तक प्रस्तुत कर अपना
बलि ने पायी मुक्ति।

देव लोक में ब्रह्मा हरि की
लीला देख रहे थे।
प्रभु पद प्रक्षालन करने को
हर क्षण तैयार खड़े थे।

कदम दूसरा जैसे ही
हरि का पड़ा स्वर्ग लोक में।
पद पंकज प्रक्षालन कर, जल
संचित कर लिया कमंडल में।

बीते काल, भगीरथ ने
तप कर, ब्रह्मा से वर पाया।
हरि चरणामृत की धार वही
धरती पर ले आया।

उस प्रबल वेगवती धारा को
शिव ने जटाओं से मार्ग दिया।
बहती है तब से धरती पर,
जाने कितनों का उद्धार किया।

पर आज वही गंगा माँ,
हमसे कुछ कहती है।
बाँध दिया है हमने उसको,
मंद धार बहती है।

बहा रहे हम इसमें मल जल,
कूड़ा-कर्कट, मुर्दे, राख।
उद्योगों के बहें रसायन,
कपड़े धुलते धोबी घाट।

किसी कथा पूजा में जब हम
चरणामृत पाते हैं।
हाथ पसार ग्रहण करते,
सिर माथ चढ़ा लेते हैं।

कैसी दोहरी सोच समझ यह
कैसा है व्यवहार।
जीवन देने वाली माँ संग
ऐसा अत्याचार।

ध्यान रहे, यदि इस धरती पर
गंगा नहीं रहेगी।
जन जीवन नहीं बचेगा,
धर्म संस्कृति नहीं रहेगी।

गंगा माँ की खातिर हमको
पुनः भगीरथ बनना होगा।
गंदा न करें, न करने दें,
ऐसा प्रण करना होगा।

गंगा मइया माफ़ करें,
हम बुद्धिहीन, मतिमूढ़।
डाल वही हैं काटते,
जिस पर हैं आरूढ़।

हे पाप नाशिनी गंगा माँ,
दो जन को सुविचार।
विचलित औ' शर्मिन्दा हूँ,
मैं तेरी दशा निहार।

No comments:

Post a Comment