Thursday, December 29, 2016

दोहे

दोहे
धूप न निकली आज भी, गये कई दिन बीत।
सर्द हवा भीतर घुसे, छेद देह की भीत।
..........
सर्द हवाएँ तीर सी, बींध रहीं हैं देह।
सूरज की किरणें भली, बरसाती हैं नेह।
.........
अलसायी सी धूप है, सूरज है हैरान।
कोहरे के आतंक से, सहमी उसकी जान।


 

Sunday, December 18, 2016

धूप प्रेयसी

धूप प्रेयसी

धूप प्रेयसी आँगन उतरी,
कुहरे का पट खोल।
मिलने निकल पड़े सब बाहर,
यह पल है अनमोल।

नर्म गुनगुनी धूप सुहाती,
सहलाती तन-मन को।
बचपन सी चंचलता देती,
कठुआए जीवन को।
रह रह कर है बैरन पछुआ,
देती ठंडक घोल।
धूप प्रेयसी आँगन उतरी,
कुहरे का पट खोल।

बाटी चोखा दिन में जमता,
बीच-बीच में चाय।
बच्चे छत पर गुड्डी ताने,
पेंचा रहे लड़ाय।
हुई शाम, घर में घुस जाते,
दरवाज़ा मत खोल।
धूप प्रेयसी आँगन उतरी,
              कुहरे का पट खोल।                

Tuesday, June 7, 2016

गज़ल

गज़ल 
ज़ख़्म गैरों को दिखाते क्यूँ हो।
वक्त अपना यूँ गँवाते क्यूँ हो।
रास्ते जिनपे खुद चले ही नहीं,
उनको औरों को दिखाते क्यूँ हो।
मैं सुकूँ से हूँ, मुझे छेड़ो मत,
याद आ आ के सताते क्यूँ हो।
राह में फूल भी हैं, काँटे भी,
दिल को बेताब बनाते क्यूँ हो।
जब पता है कि सब मुसाफ़िर हैं,
बेवजह दिल को लगाते क्यूँ हो।

Monday, May 16, 2016

देवदार

देवदार
 
कुदरत का अनुपम उपहार,
यह देवदार।
झुरमुटों की ओट से
रवि झाँकता,
होता विहान।
पत्र पूरित डाल बिनतीं
छाँव का
अद्भुत वितान।
ऋषि सरीखा, खड़ा तनकर,
ऊर्ध्वगामी,
निर्विकार।
यह देवदार।
प्रकृति का हर रोष पहले
झेलता
अपने बदन पर।
बाँध रखता गिरि धरा को,
अभय देता
है निरंतर।
गिरि सभ्यता का
यह रहा
जीवन आधार।
यह देवदार।
शिव लीला का रहा साक्षी,
कालिदास का
श्लोक।
गिरि के सोपानों पर इसका
हरा भरा हो
लोक।
इसकी रक्षा का अब हमको
लेना होगा
भार।
यह देवदार।