सुबहे बनारस
गंग की तरंग में उमंग भंग का भरा।
उठत, गिरत, बढ़त, थमत नाचती ज्यों अप्सरा।
भोर समय लहरों संग किरण रवि की खेलतीं।
लाल गेंद समझ जल में सूरज को हेरतीं।
सैलानियों को भर के नाव, लहरों पर तैरती।
चिड़ियों की पंख ध्वनि सन्नाटा चीरती।
धार बीच, जाल डाल, माझी गीत गाता है।
मंद शीतल पवन छुवन, तन मन पुलकाता है।
गंगा के घाटों पर हो रहा नहान है।
सुबहे बनारस की छटा नयनाभिराम है।
गंग की तरंग में उमंग भंग का भरा।
उठत, गिरत, बढ़त, थमत नाचती ज्यों अप्सरा।
भोर समय लहरों संग किरण रवि की खेलतीं।
लाल गेंद समझ जल में सूरज को हेरतीं।
सैलानियों को भर के नाव, लहरों पर तैरती।
चिड़ियों की पंख ध्वनि सन्नाटा चीरती।
धार बीच, जाल डाल, माझी गीत गाता है।
मंद शीतल पवन छुवन, तन मन पुलकाता है।
गंगा के घाटों पर हो रहा नहान है।
सुबहे बनारस की छटा नयनाभिराम है।
nice presentation
ReplyDeleteइस कविता को पढ़कर आठ साल देखी बनारस की एक सुबह याद हो आई.....
ReplyDeleteसबकुछ ऐसा ही तो था कविता के अंदाज में