गज़ल
बन्धनों से अब मुझे उपराम कर मेरे सखा,
मुक्त हो आकाश में निर्भय विचरना चाहता हूँ।
बाँध कर घुँघरू, जगत की ताल पर नाचा बहुत,
तोड़ सारे बंध अब, प्रिय को रिझाना चाहता हूँ।
गा चुका मैं गीत सारे, पर न भाया कुछ तुम्हें,
मन की वीणा की नयी इक धुन सुनाना चाहता हूँ।
साँस जब तक साथ देगी, मैं लड़ूँगा आँधियों से,
मैं खुदी को बन्दगी का शै बनाना चाहता हूँ।
इतनी ताकत, इतनी हिम्मत, इतनी दौलत दे मुझे,
मैं सभी के ज़ख्म पर मरहम लगाना चाहता हूँ।
बन्धनों से अब मुझे उपराम कर मेरे सखा,
मुक्त हो आकाश में निर्भय विचरना चाहता हूँ।
बाँध कर घुँघरू, जगत की ताल पर नाचा बहुत,
तोड़ सारे बंध अब, प्रिय को रिझाना चाहता हूँ।
गा चुका मैं गीत सारे, पर न भाया कुछ तुम्हें,
मन की वीणा की नयी इक धुन सुनाना चाहता हूँ।
साँस जब तक साथ देगी, मैं लड़ूँगा आँधियों से,
मैं खुदी को बन्दगी का शै बनाना चाहता हूँ।
इतनी ताकत, इतनी हिम्मत, इतनी दौलत दे मुझे,
मैं सभी के ज़ख्म पर मरहम लगाना चाहता हूँ।
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