Thursday, September 18, 2014

बाबूजी

बाबूजी

बाबूजी की अँगुली थामे
मैने चलना सीखा।
टेढ़ी मेढ़ी पगडंडी पर
आगे बढ़ना सीखा।

नाव सरीखा जीवन जीते,
रहते थे जल के ऊपर,
गोदी में कुटुम्ब का भार लिए,
मृदु हास लिए अधरों पर।
बाबूजी मैने ना देखा,
तुम सा सन्त सरीखा।
बाबूजी की अँगुली थामे
मैने चलना सीखा।

स्वर व्यंजन का बोध कराया,
दिया अंक का ‌‌ज्ञान,
संस्कारों का बीज रोप,
दिया व्यवहारों का ज्ञान।
सदाचार, संयम, अनुशासन,
कर्मयोग की खींची रेखा।
बाबूजी की अँगुली थामे
मैने चलना सीखा।

प्रेरक तत्व बन मानस में,
सदा विचरते रहते हो,
इस जीवन के संघर्षों में,
सदा साथ ही रहते हो।
सदेह तुम्हें मैने केवल
सोलह वर्षों तक ही देखा।
बाबूजी की अँगुली थामे
मैने चलना सीखा।

Saturday, September 13, 2014

आखिर मुझे कहाँ जाना है

आखिर मुझे कहाँ जाना है

आखिर मुझे कहाँ जाना है।

दिन पाखी बन उड़ते जाते,
मन में उलझे प्रश्न सताते,
पीछे मुड़ कर जब जब देखूँ,
दूर तलक बस वीराना है।
आखिर मुझे कहाँ जाना है।

दिन भर की ये आपा धापी,
लूट, झूठ औ’ छल की थाती,
फिर भी मन में है अकुलाहट,
कितना और कमाना है।
आखिर मुझे कहाँ जाना है।

दोपहरी है, या फिर रातें,
मन बन्जारा, बहकी बातें,
राह दिखा मेरे प्रियतम अब,
किस विधि तुझको पाना है।
आखिर मुझे कहाँ जाना है।