मन अनुरागी
मन अनुरागी, तन संसारी,
मेरा है गिरधारी।
पूरी अभी बहुत हैं करनी,
मुझको ज़िम्मेदारी।
तुमने ही संसार बनाया,
औ' रिश्तों का ताना-बाना।
व्यथित-भ्रमित मन-बुदि्ध, न सूझे
आखिर मुझे कहाँ है जाना।
इस जग की है राह कठिन प्रभु,
राग-द्वेष के मोह-पाश में,
हो जाती है भूल-चूक औ'
अनचाहे अपकर्म बहुत से।
पाप हरो प्रभु, तुम ही मुझको
सच्ची राह दिखाओ।
बन कर रथी मेरे अन्तर के
मुझको भव पार कराओ।
मन हो निर्मल, दीप जले प्रभु
इसमें तेरी भक्ति का।
दो वर, विकल बुदि्ध को मेरी
तव चरणों की आसक्ति का।
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