Sunday, July 27, 2014

ऊबता मन

ऊबता मन

अपनी बनाई भीत के
भीतर फँसे हम।
ऊबता मन।

भोग मय जीवन बना
आदर्श अपना,
अर्थ अर्जन बन गया बस
लक्ष्य अपना।
अजानी और अंधी दौड़ के
भागी बने हम।
ऊबता मन।

बुन लिया हमने चतुर्दिक
एक कृत्रिम जाल,
भूल बैठे सहज जीवन,
अब बुरा है हाल।
अँधेरी सुरंग के
गामी बने हम।
ऊबता मन।

Wednesday, July 16, 2014

सूखा सावन

सूखा सावन

बीत रहा है सावन सूखा,
मेघ खेलते आँख मिचौनी।
गर्म हवा है तन झुलसाती,
मन उदास है, नज़रें सूनी।

आखिर खता हुई क्या हमसे,
क्यों रूठे हैं मेघ।
जंगल काट बनी मीनारें,

हवा उड़ाती रेत।
आवारा इन मेघों की अब,
कौन करे अगवानी।
बीत रहा है सावन सूखा.....

धरती में पड़ गयीं दरारें,
सूख गये सब ताल।
मँहगाई की मार पड़ी तो,
हाल हुआ बेहाल।
हाथ जोड़ कर विनती करते
मेघों से दो पानी।
बीत रहा है सावन सूखा.....

कैसे होंगे सपने पूरे,
पीले होंगे हाथ।
साहूकार खड़ा दरवाजे,
करने दो दो हाथ।
लगता है अब मर जाएगी
बिना दवाई नानी।
बीत रहा है सावन सूखा.....