Sunday, June 24, 2012

शहर पसारे पाँव

शहर पसारे पाँव

शहर पसारे पाँव,
सिकुड़ते गाँव।

हाकिम पहुँचे चौपालों पर,
एक नया फ़रमान लिए,
ले लो यह नोटों की गड्डी,
अब ग्राम भूमि सरकारी है।
यहाँ बनेगी फ़ैक्टरी,
अस्पताल, स्कूल,
सबको काम मिलेगा भइया,
दुर्दिन जाओगे भूल।
खेती, खलिहानी सब छूटी,
फूले हाथ, पाँव।
शहर पसारे पाँव,
सिकुड़ते गाँव।

भूपतियों से इतर गाँव में
ऐसे भी थे,
सरकारी खसरों में जिनके
नाम नहीं थे।
कहलाते मज़दूर,
गाँव में ही रहते थे,
खेतों में मज़दूरी करके
जीवन यापन करते थे।
कौन सुने अब उनकी पीड़ा,
कहाँ मिलेगी ठाँव।
शहर पसारे पाँव,
सिकुड़ते गाँव।

उद्घाटन को मंत्री आये,
साथ में मेला ठेला था,
सरकारी वादे थे लेकिन,
गाँव का एक न धेला था।
उस पर, यह क्या, बनते दिखते,
फ्लैट, इमारत आलीशान,
मंहगे होटल, शॉपिंग मॉल,
जहाँ बसें शहरी धनवान।
जाने कब तक छला करेगा,
गाँवों को सरकारी दाँव।
शहर पसारे पाँव,
सिकुड़ते गाँव।

Saturday, June 23, 2012

माँ की गोद

माँ की गोद

माँ, तेरी गोदी में सिर रख
फिर रोने को दिल करता है।

जब से है छूटा साथ तेरा,
जग सूना सूना लगता है।
हर चीज बेगानी लगती है,
हर ख्‍़वाब अधूरा लगता है।
माँ, तेरी गोदी में सिर रख
फिर रोने को दिल करता है।
 
तेरी यादों में दिन बीते,
तेरे सपनों में रात कटी,
तेरी सीखों का दिया मेरा
जीवन पथ रौशन करता है।
माँ, तेरी गोदी में सिर रख
फिर रोने को दिल करता है।

तुम कहती थी जग धोखा है,
दिखने में लगता चोखा है।
माँ, तेरे साथ जिया हर पल
नयनों में तैरा करता है।
माँ, तेरी गोदी में सिर रख
फिर रोने को दिल करता है।

गज़ल - फिसलन भरी डगर में


गज़ल 

फिसलन भरी डगर में, कहीं मैं भटक न जाऊँ
ऐ रब मुझे बचाना, डरने लगा हूँ मैं।

तेरे इश्क में दीवाना, यूँ ही रहूँ हमेशा,
मेरे सामने ही रहना, तेरे सामने हूँ मैं।

जीने नहीं है देती, दुनिया किसी तरह से
तेरे हर इक करम पे, मरने लगा हूँ मैं।

बाहर की मौज झूठी, भीतर का मौन सच्चा
अब कर नजर इनायत, सँवरने लगा हूँ मैं।

जब तक रहूँ सफर में, मेरी बाँह थामे रखना,
दुनिया के इस भरम में, भटकने लगा हूँ मैं।

Friday, June 22, 2012

शेर

शेर
 
ख़्वाहिशों में मसरूफ़, दो पल, खुद के लिए भी निकाल,

क्या जिया, अगर दो पल, अपने लिए न जी पाया।

मौत

   मौत

अब न बाकी है कोई दर्द ज़माने वाला,
वक्त ये जाने कहाँ हमको ले आया है।
हर तरफ़ बिखरा है नूर तेरी रहमत का,
सुकूँ है, फ़िक्र का न कोई साया है।

याद कर-कर के मुझे रोना न ऐ दुनियॉँ वालों,
ज़िन्दगी की यही इक, बस यही सच्चाई है।
भटक रहा था यहॉँ मैं, न जाने कब से,
मेरे मालिक को मेरी आज याद आई है।

चंद लमहों के मुसाफ़िर थे, ये भूल गये,
दिल लगा बैठे, फ़र्ज़ अदा करते करते।
अब तो सोने दो सुकूँ से, न छेड़ो कोई,
थक गया ज़िन्दगी का कर्ज़ अदा करते करते।

प्रभु, तुम बिन विश्राम नहीं

प्रभु, तुम बिन विश्राम नहीं

प्रभु, तुम बिन विश्राम नहीं।

मानुस जनम अकारथ कीजो,
आयो किसी के काम नहीं।

पंचभूत तन सब जग जाना,
की निज से पहचान नहीं।

साबुन तेल लगा तन पोसा,
मन के कलुष का भान नहीं।

मन्दिर तीरथ खोजी मूरत,
दी दीन दुखिन्ह मुसकान नहीं।

जग की जगमग में मन रमता,
आवत मुख हरि नाम नहीं।

                   

हर रंग तुम्हारा है

हर रंग तुम्हारा है

हर रंग तुम्हारा है।
हर राग तुम्हारा है।

देखूँ मैं जिधर भी अब,
तेरा ही नज़ारा है।

इन्सान की क्या हस्ती
ग़र तेरा न सहारा है।

क्यूँ लड़ते रहे अब तक,
क्या मेरा तुम्हारा है।

भूला हुआ है तुझको
किस भ्रम में बेचारा है।

इक तू ही मेरी मंज़िल,
तेरा ही सहारा है।

अब तेरे हवाले हम,
कर, जो तुझको गवारा है।

नारी विमर्श

नारी विमर्श

जीना है तो लड़ना होगा।
बढ़ना है तो पढ़ना होगा।

कठिन है डगर,
राह मुश्किल मगर,
ठान ले तू अगर,
कुछ भी मुश्किल नहीं।
आस का दीप ले,
मन में विश्वास भर,
तू चलेगी तो सुखद,
जायेगी बन डगर।
धैर्य छूटे नहीं,
मन भी टूटे नहीं,
गिर भी जाये अगर
फिर संभलना होगा।
जीना है तो लड़ना होगा।
बढ़ना है तो पढ़ना होगा।


तुझसे ही है,
यह जग जन्मा,
पाया पहला पोषण
तेरी ममता की बूँदों से।
तेरी छाती से सट कर ही,
पहली धड़कन पाई,
प्रथम गुरु बन कर तूने ही,
जग को राह दिखाई।
जग को संबल देने वाली,
अबला कैसे हो सकती है।
इस विचार को तजना होगा,
प्रण कर आगे बढ़ना होगा।
जीना है तो लड़ना होगा।
बढ़ना है तो पढ़ना होगा।


तुझ पर अंकुश रख
आज़ादी की
बात सोचना बेमानी है।
तेरा हक हर, विकास की
पूरी नहीं कहानी है।
याची-दीन छवि को तेरी
देख भले जग मुसकाता है,
तेरी तनी भृकुटि से लेकिन
थर्राता-घबराता है।
जग है तेरा ऋणी,
तुझे क्या देगा।
जग को राह दिखानी है तो,
तुझको आगे आना होगा।
जीना है तो लड़ना होगा।
बढ़ना है तो पढ़ना होगा।

पिया सुधि

  पिया सुधि

पिया सुधि बिसरत नाहीं।

आठों याम नाम जपे रसना,
नैनन नीर रुकत अब नाहीं।

तुम बिन विकल, कहाँ मैं ढूँढ़ूँ,
बसो मम अन्तर माहीं।

रूप अनूप लखूँ दिन राती,
रोम-रोम पुलकाहीं।

पाप-ताप हर, चरण में राखो
और अनुग्रह नाहीं।

मन अनुरागी

मन अनुरागी
 
मन अनुरागी, तन संसारी,
मेरा है गिरधारी।
पूरी अभी बहुत हैं करनी,
मुझको ज़िम्‍मेदारी।

तुमने ही संसार बनाया,
औ' रिश्‍तों का ताना-बाना।
व्‍यथित-भ्रमित मन-बुदि्‌ध, न सूझे
आखिर मुझे कहाँ है जाना।

इस जग की है राह कठिन प्रभु,
राग-द्वेष के मोह-पाश में,
हो जाती है भूल-चूक औ'
अनचाहे अपकर्म बहुत से।

पाप हरो प्रभु, तुम ही मुझको
सच्‍ची राह दिखाओ।
बन कर रथी मेरे अन्‍तर के
मुझको भव पार कराओ। 

मन हो निर्मल, दीप जले प्रभु
इसमें तेरी भक्‍ति का।
दो वर, विकल बुदि्‌ध को मेरी
तव चरणों की आसक्‍ति का।

माँ की याद

माँ की याद

माँ, याद तुम्‍हारी आई।

कभी रुलाती, कभी समझाती,
जीने की है राह बताती,
कभी तुलसी का चौरा लगती,
कभी मानस की चौपाई।
माँ, याद तुम्‍हारी आई।
 
जब-जब मेरे कदम डिगे,
आगे बढ़ तुमने थाम लिया,
धीरज धर आगे बढ़ने की
बात हमेशा सिखलाई।
माँ, याद तुम्‍हारी आई।

अपने ग़म-आँसू दबा छिपा,
दी दूर-दृष्‍टि की सीख हमें।
दया, धर्म, करुणा, क्षमा
की मूरत थी तू माई।
माँ, याद तुम्‍हारी आई।

मुझे गर्व है तुम जैसी
माता का बेटा होने पर,
देती है तेरी याद बढ़ा,
इस छाती की चौड़ाई।
माँ, याद तुम्‍हारी आई।

कभी-कभी सपने में आ,
मुझको दर्शन दे जाना माँ।
है पता मुझे, अब सच में तू
नहीं पड़ेगी दिखलाई।
माँ, याद तुम्‍हारी आई।

माँ

माँ

माँ!

मैं तुम्‍हें देख नहीं सकता,
सुन नहीं सकता,
छू भी नहीं सकता,
पर अनुभव कर सकता हूँ।
 
माँ, तुम हो मेरे तन-मन के अणु-अणु में,
मेरी धमनी में बहने वाले
लोहू के कण-कण में,
मेरी मति, गति और वृत्‍ति में।
 
माँ, क्षमा करो अपने प्रति मेरे अपराधों को
जो हुए हों मुझसे,
जाने-अनजाने में,
मन, वचन या कर्म से।
  दो चिर्‌ आशीष।

श्री हरि से है निवेदन,
दें तुम्‍हें शरण
अपने चरण में।
दें दिव्‍य मोक्ष।

श्री विष्‍णवे नमः।
श्री विष्‍णवे नमः।
श्री विष्‍णवे नमः।

पहेली

पहेली

भारत में है बोली जाती,
मेरे मन को खूब है भाती।
पाँच अक्षर का उसका नाम,
उल्टा सीधा एक समान।

                       
                    उत्तर - मलयालम                       

दोहा

दोहा

हाथ हाथ पर धरि रहे, बैठ भरोसे भाग।
करमहीन ते नरन के, हाथे ना कछु लाग।

गज़ल - देखे हैं हमने ज़िन्दगी के

गज़ल
 देखे हैं हमने ज़िन्दगी के रूप कई, अंदाज़ कई।
है हसीं ख्वाब कभी तो कभी इक जंग है ये।

किसी के लब पे तवस्सुम खिला कर देखो।
सुकून पाने का अपना तो अजब ढंग है ये।

सरे जहान ये लगता है कि मैं तनहा हूँ।
है न कुछ और, यादों का तेरी रंग है ये।

जहाँ में आ के न छोड़ कभी कश्ती--उम्मीद।
यकीन कर, मिलेगी मंज़िल, गर संग है ये।

मौत आये भी तो गम नहीं है मुझको।
आखिर इस ज़िन्दगी का अंग है ये।

शेर

शेर

ख्वाब बन के रह गयीं मेरे दिल की तमन्नाएँ,
इस जहाँ में ठोकरों के सिवा कुछ न रहा।
..........

क्यूँ अब ये दुनियाँ मुझसे वास्ता रखे,
इस जहाँ में मेरा बचा ही क्या है।
.........

सारा जग मुझसे आँख चुराता है क्यूँ,
शायद मतलब निकल गया है, इसलिए।
.........

तनहाई--शब में जब दुनियाँ तमाम सोती है।

जागता हूँ मैं औ' ये आँख मेरी रोती है।

मुक्तक

मुक्तक

ऐ दूर खड़े हो मंज़िल निहारने वाले,
मेहनत कर के देख वो तेरे कदम चूमेगी।
शोभा नहीं देता तुझे ऐसे बैठ रहना,
है जन्म हुआ तेरा, ये कर्म के लिए ही।

..............

खाई-ए-दुश्मनी भी पाट लेते हैं,
ये दुनियाँ वाले मतलब पे अक्सर।
धरमो-करम की तवज्जो है खाक से न ज़्यादा,
ईमां भी बेच लेते हैं ये मतलब पे अक्सर।

.............

न कार्य कोई है कठिन,
यदि ठान लेते हम उसे।
हाँ, अथक श्रम से है ना
हम साध लेते किसे।

............

गम नहीं हैं कम यहाँ खुशियों से कहीं,
सब तरफ़ परेशानियाँ हैं तज़ुर्बा मेरा।
इन परेशानियों से जो घबराये, चुक गये,
है इनसे जूझना ही सही, तज़ुर्बा मेरा।

..........

दीप जले रे, दीप जले रे।
सबके घर आँगन में दीप जले रे।
सबके दामन में खुशियाँ फैलें,
शान्ति का चतुर्दिक दीप जले रे।

..........

हर एक ज़र्रे में बसी है याद तेरी,
भुलाना चाहूँ भी तो मैं तुमको भुला नहीं सकता।
कदम कदम पे याद तेरी आती है,
अश्क बहते हैं फिर खुद ही सूख जाते हैं।

शिक्षक की प्रतिज्ञा

शिक्षक की प्रतिज्ञा

आओ करें हम आज प्रतिज्ञा,
फैलायेंगे जग में विद्या।

बच्चों को सद्मार्ग दिखायें,
उन्हें नेक इन्सान बनायें,
धीर वीर विद्वान बनायें,
पार लगे जीवन की नैया।
आओ करें हम आज प्रतिज्ञा,
फैलायेंगे जग में विद्या।

जग ने हमको मान दिया है,
प्रभु से ऊँचा स्थान दिया है,
आओ करें  कुछ उससे ज्यादा,
ऊँची हो भारत की ग्रीवा।
आओ करें हम आज प्रतिज्ञा,
फैलायेंगे जग में विद्या।

Wednesday, June 20, 2012

माँ! शक्ति हमें दे

माँ! शक्ति हमें दे

माँ!
शक्ति हमें दे,
भक्ति हमें दे,
चरणों में आसक्ति हमें दे।
माँ!

अंतर्मन का अंधकार हर ,
बहा ज्ञान-गंगा की धारा,
हो कर्तव्य बोध जन जन में
टूटे व्यर्थ अहं की कारा।
विषय मोह की काट बेड़ियाँ,
जीवन पथ आलोकित कर दे।
माँ!
शक्ति हमें दे,
भक्ति हमें दे,
चरणों में आसक्ति हमें दे।
माँ!

मुझमें इतनी शक्ति नहीं माँ,
तेरी महिमा मैं गा पाऊँ,
मैं अज्ञानी बालक तेरा
सच्चे मन से शीश नवाऊँ।
कर पाऊँ मैं तेरे दर्शन,
ऐसी अद्भुत दृष्टि हमें दे।
माँ!
शक्ति हमें दे,
भक्ति हमें दे,
चरणों में आसक्ति हमें दे।
माँ!

यूं न उड़ाकर ले जाओ

यूं न उड़ाकर ले जाओ

हवाओं!
यूं न उड़ाकर ले जाओ
बादलों को मेरे शहर से।
मुद्दतों बाद ये फिर आज नजर आये हैं,
प्यासी धरती की आस बन के छाये हैं।
खेत मे किसान-
माथे पर हाथ रख;
देखता आसमान,
चिन्तित, किन्तु आशावान;
दीख पड़ता मेघ का कोई एक टुकडा,
दीप्त होती क्षीण आशा;
स्वप्न तिर जाते नयन में-
असंरव्य।
करता परिश्रम,
बहाता पसीना,
धीरे-धीरे अपने पंखों से इन्हें नीचे उतार
भर दो हर खेत,गली, कुन्ज, द्वार....
बरसा दो जीवन-
सपने हो सकें पूरे;
जन-जन के तन-मन को
पुलकित कर दो....
हवाओं!
यूं न उड़ाकर ले जाओ
बादलों को मेरे शहर से।

गज़ल - ज़िन्दगी बख्शी है

गज़ल
 

ज़िन्दगी बख्शी है तुमने हमको तो हम जीते हैं।
जख्म पाते हैं औ’ खूँ के घूँट पीते हैं।

छिपाये बैठे हैं सीने में ज़माने के सितमोगम,
ज़ुबाँ चुप है, लब हँस के ज़हर पीते हैं।

इस गुलिस्ताँ का कोई गुल नही मेरी खातिर,
हर गुंच उनकी शै है, हम खारों के लिए जीते हैं।

शमाँ उम्मीद की जो इक, दिल-ए-फ़ानूस में जलती,
बुझे जब-जब तभी मरते, रही रौशन तो जीते हैं।

बादल

  बादल

गर्मी से बन कर भाप उड़े,
जल बिन्दु मिले और मेघ बने,
मस्त पवन के झोंकों के संग,
करते विचरण नील गगन में।

लगते कभी पर्वत शिखर,
या हाथियों के झुंड से,
चिंघाड़ उठते हैं कभी
लड़ कर परस्पर जोर से।

काले भूरे घन उमड़ घुमड़,
नभ मंडल पर छा जाते,
रह रह कर चमक-चमक चम-चम,
हैं दंत पंक्ति दिखलाते।

इतने में जल की फुहार
तन मन पुलकित कर जाती,
माटी की सोंधी सुगंध,
साँसों में बस सी जाती।

कभी कभी तो ये बादल
हैं जम कर खूब बरसते,
अम्बर में टँक से जाते हैं,
नहीं शीघ्र हैं छँटते।

और कभी ये बादल बिन
बरसे उड़ जाते हैं,
धरती की प्यास नहीं बुझती,
ये आगे बढ़ जाते हैं।

बचपन

बचपन

देखता हूँ जब कभी भी
छोटे छोटे इन बच्चों को,
यादें अपने बचपन की
हैं घेरे लेतीं मन को।

मस्ती भरे वे दिन बचपन के
हैं याद बहुत ही आते,
संगी-साथी के संग दिन भर
हम भी थे मौज उड़ाते।

दिन भर खेला करते थे हम
तन मन में चंचलता थी,
ऊँच नीच का भेद नहीं था
नहीं कोई चिन्ता थी।

नित्य समय से उठते, पढ़ते,
शाला थे हम जाते,
रातों को थे परी कथाएँ
बाबा हमें सुनाते।

हिमालय

हिमालय

हे हिमनिधान!

नभ को छूता मस्तक तेरा
सिखलाता गौरव से जीना,
शीश न झुकने पाये कभी भी
आयें कितने आँधी तूफाँ।
पर हे गिरिराज तुझे है
इसका नहीं तनिक अभिमान।
हे हिमनिधान!

तन है तेरा अति कठोर,
पर मन से है तू अति उदार,
गंगा, यमुना, सतलज बन
बहती है तेरी अश्रुधार।
जग का है संताप देख
गल जाता तेरा मन महान।
हे हिमनिधान!

आशा

आशा

आशा
जीने की एक कला है
जो
आदमी को उत्साह प्रदान करती है,
जीने की शक्ति प्रदान करती है
और
प्रेरित करती है
आगे बढ़ने को।
आशा
कभी कभी
सिद्ध होती है
मृग मरीचिका के जल की तरह-
अस्तित्वहीन, वंचनामयी;
फिर भी
हमें
न छोड़नी चाहिए
आशा
क्योंकि
निराश होते ही
दुख और भी बढ़ जाता है
आदमी
जीता हुआ भी मर जाता है।
आशा
जीने की एक कला
है।

एक तिनका

एक तिनका
         
इस दुनियाँ में मैं कि,
दरिया में पड़ा हुआ-
एक तिनका,
जिसका न हो
अपने उपर
कोई नियंत्रण,
और हो वह-
वर्तुल इच्छालहर के
वश में पड़ा
अभिशप्त,
चकरघिन्नी की तरह,
इधर उधर भटकता
ठोकरें खाता मैं कि
दरिया में पड़ा हुआ
एक तिनका।

Saturday, June 9, 2012

मुकाम

मुकाम

जिन्दगी में,
कभी-कभी
ऐसे भी मुकाम आते हैं,
जब आदमी-
कहीं से टूटने लगता है,
छाने लगता है अँधेरा,
उसके चारों ओर-
गहराती निराशा का,
गहरे समुद्र के बीच,
पथरीले दीप पर एकाकी,
उसके वजूद को
ठुकराता हुआ तूफान,
निगल लेता है-
निज़ात का हर
रास्ता।
और इंसान
डाल से झड़े
पत्ते की तरह बे-मुकाम,
उड़ता-भटकता रहता है,
किसी ऐसी जोति
की तलाश में,
जो उसकी प्रेरणा बन जाए,
उठा सके उसे ऊपर
दूर ले जा सके-
अँधेरे के भँवर से उसे,
आते हैं ज़िन्दगी में
 मुकाम कभी-कभी,
ऐसे।

जिन्दगी

ज़िन्‍दगी
 
ज़िन्‍दगी है चार दिन की,
लोग कहते,
बहुत होते हैं मगर -
ये चार दिन भी।
 
युग समा जाते पलों में हैं -
यहाँ;
आपदाएँ घेर लें जब -
ज़िन्‍दगी ।
ज़िन्‍दगी है चार दिन की लोग कहते।
 
दर्द की तनहा अमां में जब -
कभी,
नूर के हर एक कतरे के लिए,
बेकसी से टूटता इंसाँ यहाँ,
भटकनों औ' ठोकरों की-
नेमतें ले,
गवाँ देता चार दिन जब
ज़िन्‍दगी के
बहुत लगते हैं तभी
ये चार दिन भी ।
ज़िन्‍दगी है चार दिन की लोग कहते।
 
रह यहाँ जाते मगर -
अफ़सान-ए कुछ,
कुछ फ़ज़ाओं में गिला बच,
शेष रहती;
समय की रेती पै -
कुछ नक्‍श्‍ो कदम
औ' गुनाहों का सबब भी
शेष रहता;
तब ख़यालों को
चुभन की टीस दे दे,
बढ़ा देते हैं सभी मिल -
ज़िन्‍दगी
ज़िन्‍दगी है चार दिन की लोग कहते,
बहुत होते हैं मगर ये चार दिन भी।

सुमन-साधना

ललक

ललक

होगी ललक पा सको तुम कुछ,
बढ़ने की होंगी यदि चाहें,
मार्ग तुम्हारा रूँध न सकेगा,
व्यर्थ रहेंगी बाधाएँ।

हार हुई न मन की जो यदि
बाँहों का विश्वास न टूटा,
फिर कोई प्राप्तव्य नहीं,
जो रह जाए तुमसे छूटा।

जड़-चेतन से युक्त सृष्टि की
मानव तुम सर्वोपरि कृति हो,
इस गौरव की रक्षा के अनुकूल
तुम्हरी मति हो, गति हो।

आशा ज्योति

आशा-ज्योति

नवल प्राण, स्फूर्ति नयी,
नव शक्ति, नयी आशा दे।
छाता रहे अँधेरा,
हों ठोकरें अनेकों,
हो मंज़िल-ए-ललक,
आशा का एक दीपक हो।
भटकी मेरी राहों पे,
तेरी दया की रोशनी,
सद्वृत्ति का सबेरा,
सुख शांति औ‘ समता धनी।
चिर राग-शोक मत हो,
ऐसी हमें दया दे।
नवल प्राण, स्फूर्ति नयी,
नव शक्ति, नयी आशा दे।

Wednesday, June 6, 2012

गज़ल - अभी कल तक जो रिश्ते


गज़ल

अभी कल तक जो रिश्ते जताते थे मुझसे,
आज पूछूँ भी तो नज़रें वे चुरा लेते हैं।

सबसे जा जा के अपना दर्द क्या कहना,
यही सोच के आँखों में आँसू छिपा बैठे हैं।

सब नहीं हैं इस जहाँ में ऐसे यारों,
जो दौड़ के दुख दर्द बँटा लेते हैं।

मेरी नज़रों में निरा पत्थर भी भला उनसे,
जो लोग केवल खुद के लिए जीते हैं।

भूल तो सबसे हो ही जाती है मगर,
ठीक कर लें जो उन्हें, वे बुरे न होते हैं।

Tuesday, June 5, 2012

हम भारत के धीर वीर

हम भारत के धीर वीर

हम भारत के धीर वीर,
दुख से न कभी घबराते।
विघ्न लाख आयें जो पथ में,
उनको तोड़ दिखाते।
 
भारत के भावी भविष्य  के
सपने पलकों में हैं पाले।
ध्येय उच्च, उत्साह हृदय में
लक्ष्य भेद सारे कर डाले।
 
अन्तिम क्षण तक रक्षा करनी है,
हमको भारत माँ की।
अक्षय शान्ति दीप रखना है,
माँ की ही देहरी।
 
शत्रु बली, परवाह नहीं, हम
चूर्ण-चूर्ण उसको कर जाते।
हम भारत के धीर वीर,
दुख से न कभी घबराते।

सावन

     सावन

आया आया आया।
आया सावन आया।

धूप की गर्मी हुई कुछ कम,
नभ में छाये मेघ अनुपम,
खेतों, बगियों, कुंजों में,
मोरों ने पंख फैलाया।

प्यासी धरती ने देखा नभ,
सपने अंकुर हो जागे,
आस पुजी, मन मुग्ध हो गया,
दादुर ने लो गीत सुनाया।
दर्द पपीहे का अब फूटा, प्रीति साम लहराया।

ठहर गयी प्यास सब,
चहक चंचल हो उठी।
बावलियाँ मत्त हुईं,
कानों में गोचर थी अनुगूँज लहरों की।
दूर कोई गाता था सावन, मन भाया।

Monday, June 4, 2012

‘हरकारे’ पंछी

हरकारे' पंछी


दूर देश से आते पंछी,
सबका मन बहलाते पंछी।
अपनी मीठी आवाज़ों में,
ना जाने क्‍या गाते पंछी।

देश देश का हाल बताते,
दिन भर इधर उधर मँडराते,
आसमान में उड़ने वाले,
लगते हैं ‘हरकारे' पंछी।

सरिता

सरिता

देखो कितनी सुन्‍दर लगती,
सरिता की है धार धवल।
कल कल का संगीत सुनाती,
बहती रहती है अविरल। 

कल कल की ध्‍वनि में है इसकी,
जीवन का संगीत बसा।
मानो कहती आगे बढ़ना,
बढ़ते रहना, कभी न रुकना।

तितली

तितली

ना जाने किस देश से आती,
ना जाने किस देश को जाती।
रंग बिरंगी प्‍यारी तितली,
तू है सबके मन को भाती।

इक छोटी सी परी तू लगती,
करती रहती है मनमानी।
तुझे बुलाते देख कर बच्‍चे,
आ जा, आ जा तितली रानी।

फूल

फूल

बगिया को महकाते फूल,
रंग बिरंगे प्‍यारे फूल।
तनिक हवा का मिले इशारा,
इधर उधर लहराते फूल।
कॉँटों में भी रह मुसकाना,
हमको हैं सिखलाते फूल।
सबके मन को रिझा रिझा कर,
हमको हैं सिखलाते फूल।
सबके प्‍यारे तुम बन जाना
मुख से मीठी बोली बोल।

भारत देश

भारत देश 

जय हो तेरी भारत दे
 
तेरे चरण पखारे सागर,
तेरी रक्षा करे वो हिमगिरि,
हृदय में बहने वाली गंगा,
शीतल रखती तेरा क्ले

विंध्याचल की तू करधनी पहने,
पहने नदियों के तू गहने,
सारे जग से न्यारा है तू,
मेरे प्यारे दे

मिट्टी में हम पलते तेरी,
हम हैं तेरे रक्षक प्रहरी,
हों ना कभी हम विमुख कर्म से,
दो हमें तुम ऐसा आशीष

Sunday, June 3, 2012

भजन

 भजन

हे प्रभु, किस विधि तेरे गुण गाऊँ ।
हे प्रभु, कैसे तेरी शरण में आऊँ
 
इस जग में नहीं है कोई अपना,
यहाँ  पर है सब कुछ बस छलना,
तू ही बस मेरा शुभ चिन्तक,
बता तुझे कैसे मैं पाऊँ
 
किस विधि मैं करूँ तेरा पूजन,
किस विधि करूँ मैं अर्चन,
खैर हे प्रभु, तू तो अचिन्त्य है,
बस मैं शीश नवाऊँ

Saturday, June 2, 2012

वर्षा गीत

वर्षा गीत 

आते ही वर्षा के
खेत लहलहा उठे।
प्यास से आकुल पंछी
देखो चहचहा उठे।
 
गाँव गाँव में गयी,
दौड़ खुशी की लहर।
आसमाँ में भूरे-भूरे
बादलों को देखकर।
 
धरती की प्यास बुझी,
ताल तलैया भरे।
चारों ओर पड़ने लगीं
रिमझिम-रिमझिम फुहारें।
 
घर आँगन व खेत सब,
हो गये तर बतर।
चारों ओर गूँजने लगी,
मेंढकों की टर्र-टर्र।
 
सूखे की चिंता मिटी,
पुनः जीवन दान मिला।
हर किसाँ को अपने-अपने,
परिश्रम का ईनाम मिला।

तारे


तारे

सुबह होते ही ये सब तारे,
छिपने कहाँ चले जाते हैं।
रात होते ही फिर ये तारे,
चले कहॉँ से आते हैं।
हमें है लगता ये सब तारे,
सूरज से घबराते हैं।
रात समय ये चंदा से आ,
अपनी व्‍यथा सुनाते हैं।

प्रातः काल

प्रातः काल

कितने सुन्‍दर फूल खिले हैं,
देखो बच्‍चों बगिया में,
गुन-गुन करते भौंरे उन पर
मँडराते हैं बगिया में
चिड़ियों ने खोली हैं आँखें,
कलियाँ बदलीं फूलों में,
फैल गया है प्रकाश सूर्य का,
इस अँधियारी दुनियॉँ में।

प्रार्थना

प्रार्थना

जो है एक और नाम हज़ार,
जिसकी महिमा अपरम्‍पार,
जिसको कहते हैं ईश्‍वर,
जिसको कहते हैं करतार। 
जिसने बनाये ये सागर,
जिसने बनाये ये पर्वत शिखर,
जिसने बनायी ये धरती,
जिसने बनाया ये अम्‍बर।
सृष्‍टि कर्ता जो है जग का,
जो है पालन कर्ता,
करता है जो जग का संहार,
उस ईश्‍वर को नमस्‍कार।