जाड़े के छंद
कई दिनों के बाद आज फिर धूप खिली है।
कुहरे की चादर से जग को मुक्ति मिली है।
बैठे आँगन में सब खायें छान पकौड़ी।
बीच बीच लें चाय की चुस्की थोड़ी थोड़ी।
बर्फीली पछुआ है सबके हाड़ कँपाती।
दीन, हीन, बूढ़े, बच्चों को खूब सताती।
कभी कभी सारा दिन बीते, कुहरा छाया रहता है।
सूरज जैसे ओढ़ रजाई, अलसाया सा रहता है।
गली, मुहल्ले, चौराहों पर जले अलाव हैं।
घेरे बैठे ताप रहे सब हाथ पाँव हैं।
नये नये फल औ' सब्जी से मंडी पटी हुई है।
क्रिसमस और नये साल की मस्ती चढ़ी हुई है।
आओ कुछ उनकी भी सुधि लें, जो गरीब, बेघर हैं।
धरती है जिनकी शैया और छत अम्बर है।
कुछ गर्म वस्त्र उनको भी दें, जितनी हो शक्ति हमारी।
शीत ऋतु होती है, सब ऋतुओं पर भारी।
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