Saturday, June 9, 2012

मुकाम

मुकाम

जिन्दगी में,
कभी-कभी
ऐसे भी मुकाम आते हैं,
जब आदमी-
कहीं से टूटने लगता है,
छाने लगता है अँधेरा,
उसके चारों ओर-
गहराती निराशा का,
गहरे समुद्र के बीच,
पथरीले दीप पर एकाकी,
उसके वजूद को
ठुकराता हुआ तूफान,
निगल लेता है-
निज़ात का हर
रास्ता।
और इंसान
डाल से झड़े
पत्ते की तरह बे-मुकाम,
उड़ता-भटकता रहता है,
किसी ऐसी जोति
की तलाश में,
जो उसकी प्रेरणा बन जाए,
उठा सके उसे ऊपर
दूर ले जा सके-
अँधेरे के भँवर से उसे,
आते हैं ज़िन्दगी में
 मुकाम कभी-कभी,
ऐसे।

No comments:

Post a Comment