Saturday, June 9, 2012

जिन्दगी

ज़िन्‍दगी
 
ज़िन्‍दगी है चार दिन की,
लोग कहते,
बहुत होते हैं मगर -
ये चार दिन भी।
 
युग समा जाते पलों में हैं -
यहाँ;
आपदाएँ घेर लें जब -
ज़िन्‍दगी ।
ज़िन्‍दगी है चार दिन की लोग कहते।
 
दर्द की तनहा अमां में जब -
कभी,
नूर के हर एक कतरे के लिए,
बेकसी से टूटता इंसाँ यहाँ,
भटकनों औ' ठोकरों की-
नेमतें ले,
गवाँ देता चार दिन जब
ज़िन्‍दगी के
बहुत लगते हैं तभी
ये चार दिन भी ।
ज़िन्‍दगी है चार दिन की लोग कहते।
 
रह यहाँ जाते मगर -
अफ़सान-ए कुछ,
कुछ फ़ज़ाओं में गिला बच,
शेष रहती;
समय की रेती पै -
कुछ नक्‍श्‍ो कदम
औ' गुनाहों का सबब भी
शेष रहता;
तब ख़यालों को
चुभन की टीस दे दे,
बढ़ा देते हैं सभी मिल -
ज़िन्‍दगी
ज़िन्‍दगी है चार दिन की लोग कहते,
बहुत होते हैं मगर ये चार दिन भी।

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