गज़ल
ज़िन्दगी बख्शी है तुमने हमको तो हम जीते हैं।
जख्म पाते हैं औ’ खूँ के घूँट पीते हैं।
छिपाये बैठे हैं सीने में ज़माने के सितमोगम,
ज़ुबाँ चुप है, लब हँस के ज़हर पीते हैं।
इस गुलिस्ताँ का कोई गुल नही मेरी खातिर,
हर गुंच उनकी शै है, हम खारों के लिए जीते हैं।
शमाँ उम्मीद की जो इक, दिल-ए-फ़ानूस में जलती,
बुझे जब-जब तभी मरते, रही रौशन तो जीते हैं।
ज़िन्दगी बख्शी है तुमने हमको तो हम जीते हैं।
जख्म पाते हैं औ’ खूँ के घूँट पीते हैं।
छिपाये बैठे हैं सीने में ज़माने के सितमोगम,
ज़ुबाँ चुप है, लब हँस के ज़हर पीते हैं।
इस गुलिस्ताँ का कोई गुल नही मेरी खातिर,
हर गुंच उनकी शै है, हम खारों के लिए जीते हैं।
शमाँ उम्मीद की जो इक, दिल-ए-फ़ानूस में जलती,
बुझे जब-जब तभी मरते, रही रौशन तो जीते हैं।
No comments:
Post a Comment