Tuesday, June 7, 2016

गज़ल

गज़ल 
ज़ख़्म गैरों को दिखाते क्यूँ हो।
वक्त अपना यूँ गँवाते क्यूँ हो।
रास्ते जिनपे खुद चले ही नहीं,
उनको औरों को दिखाते क्यूँ हो।
मैं सुकूँ से हूँ, मुझे छेड़ो मत,
याद आ आ के सताते क्यूँ हो।
राह में फूल भी हैं, काँटे भी,
दिल को बेताब बनाते क्यूँ हो।
जब पता है कि सब मुसाफ़िर हैं,
बेवजह दिल को लगाते क्यूँ हो।

2 comments:

  1. सब मुसाफिर हैं तो दिल काहे लगाना ... पर क्या अपने बस में है दिल लगाना ...
    अच्छी ग़ज़ल है ...

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    1. हार्दिक आभार श्री नासवा जी।

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