धूप प्रेयसी
धूप प्रेयसी आँगन उतरी,
कुहरे का पट खोल।
मिलने निकल पड़े सब बाहर,
यह पल है अनमोल।
नर्म गुनगुनी धूप सुहाती,
सहलाती तन-मन को।
बचपन सी चंचलता देती,
कठुआए जीवन को।
रह रह कर है बैरन पछुआ,
देती ठंडक घोल।
धूप प्रेयसी आँगन उतरी,
कुहरे का पट खोल।
बाटी चोखा दिन में जमता,
बीच-बीच में चाय।
बच्चे छत पर गुड्डी ताने,
पेंचा रहे लड़ाय।
हुई शाम, घर में घुस
जाते,
दरवाज़ा मत खोल।
धूप प्रेयसी आँगन उतरी,
कुहरे का पट खोल।
बहुत सुन्दर ... धुप प्रेयसी के रूप में और कल्पना के पंख ... मधुर ...
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