गज़ल
ज़ख़्म गैरों को दिखाते क्यूँ
हो।
वक्त अपना यूँ गँवाते क्यूँ
हो।
रास्ते जिनपे खुद चले ही नहीं,
उनको औरों को दिखाते क्यूँ
हो।
मैं सुकूँ से हूँ, मुझे छेड़ो
मत,
याद आ आ के सताते क्यूँ हो।
राह में फूल भी हैं, काँटे भी,
दिल को बेताब बनाते क्यूँ हो।
जब पता है कि सब मुसाफ़िर हैं,
बेवजह दिल को लगाते क्यूँ हो।
सब मुसाफिर हैं तो दिल काहे लगाना ... पर क्या अपने बस में है दिल लगाना ...
ReplyDeleteअच्छी ग़ज़ल है ...
हार्दिक आभार श्री नासवा जी।
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