Thursday, December 25, 2014

जी रहे हैं हम...

जी रहे हैं हम...

जी रहे हैं हम,
या कि
जीवन काटते हैं ?

ओढ़ बैठे रूढ़ियाँ
आस्था के नाम पर,
हैं ज़हालत बाँटते
धर्म के व्यापार घर।
त्याग कर के
सहज जीवन,
हम बनावट बाँटते हैं।
जी रहे हैं हम,
या कि
जीवन काटते हैं ?

ताज़ी हवाएँ अनवरत हैं
खटखटाती द्वार,
क्यों न कर पाते हैं हम
सत्य को स्वीकार ?
त्याग कर सारे अहं
हम प्यार
क्यों न बाँटते हैं ?
जी रहे हैं हम,
या कि
जीवन काटते हैं ?

अनेकानेक द्वन्द्वों में
घिरी है ज़िन्दगी,
आत्मा की ध्वनि सरल
किसने सुनी ?
अन्त में अक्सर
स्वयं को
धिक्कारते हैं।
जी रहे हैं हम,
या कि
जीवन काटते हैं ?


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