राजनीति
राजनीति बन गयी रोग है।
सेवा ना यह राज भोग है।
राजनीति बन गयी रोग है।
सेवा ना यह राज भोग है।
सेवा का व्रत लेने वालों,
राजनीति क्या मजबूरी है।
सत्ता मिलते ही जनता से,
बढ़ती क्यों जाती दूरी है।
सत्ता हित दो ध्रुव मिल जाते,
कैसा ये अद्भुत संयोग है।
राजनीति बन गयी रोग है।
बन जाते हैं नीति नियंता,
नित नव पासे चलते।
जनता की हालत पतली है,
चप्पल घिसते घिसते।
कागज़ पर कार्यक्रम चलते,
जन गण मन का यह दुर्योग है।
राजनीति बन गयी रोग है।
लोकसभा के हारे दिखते,
राज्यसभा के अन्दर।
अंधे, गूँगे, बहरे हो गये,
गाँधी जी के बन्दर।
संविधान के मूल भाव को
हत कर लगता भोग है।
राजनीति बन गयी रोग है।
राजनीति क्या मजबूरी है।
सत्ता मिलते ही जनता से,
बढ़ती क्यों जाती दूरी है।
सत्ता हित दो ध्रुव मिल जाते,
कैसा ये अद्भुत संयोग है।
राजनीति बन गयी रोग है।
बन जाते हैं नीति नियंता,
नित नव पासे चलते।
जनता की हालत पतली है,
चप्पल घिसते घिसते।
कागज़ पर कार्यक्रम चलते,
जन गण मन का यह दुर्योग है।
राजनीति बन गयी रोग है।
लोकसभा के हारे दिखते,
राज्यसभा के अन्दर।
अंधे, गूँगे, बहरे हो गये,
गाँधी जी के बन्दर।
संविधान के मूल भाव को
हत कर लगता भोग है।
राजनीति बन गयी रोग है।
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