जनम जनम.....
जनम जनम के बन्धन बाँधे पाँव में।
भटक रहा मैं इस अनजाने गाँव में।
दरिया की मौजों संग आगे बढ़ता हूँ,
साहिल से टकराता, लड़ता, गिरता हूँ,
साहिल पर रुक कर सुस्ताना ध्येय नहीं,
सागर से मिलने को आतुर रहता हूँ।
बस्ती, पर्वत, समतल, जंगल, मरुथल देखे,
कभी धूप में विलमा, भटका कभी घनेरी छाँव में।
मन बंसी में ढाल प्राण की पीर विकल,
घूम रहा हूँ इस अनजाने गाँव में।
जनम जनम के बन्धन बाँधे पाँव में।
भटक रहा मैं इस अनजाने गाँव में।
भटक रहा मैं इस अनजाने गाँव में।
दरिया की मौजों संग आगे बढ़ता हूँ,
साहिल से टकराता, लड़ता, गिरता हूँ,
साहिल पर रुक कर सुस्ताना ध्येय नहीं,
सागर से मिलने को आतुर रहता हूँ।
बस्ती, पर्वत, समतल, जंगल, मरुथल देखे,
कभी धूप में विलमा, भटका कभी घनेरी छाँव में।
मन बंसी में ढाल प्राण की पीर विकल,
घूम रहा हूँ इस अनजाने गाँव में।
जनम जनम के बन्धन बाँधे पाँव में।
भटक रहा मैं इस अनजाने गाँव में।
No comments:
Post a Comment