Monday, January 12, 2015

सूरज खेले आँख मिचौनी

सूरज खेले आँख मिचौनी

सूरज खेले
आँख मिचौनी।

छिपे कभी
बादल के पीछे,
अगले ही पल
सम्मुख आये।
कभी कभी ये
ओढ़ रजाई
कुहरे की
दिन भर सो जाये।
जाड़े में है
मरहम लगती
धूप गुनगुनी।
सूरज खेले
आँख मिचौनी।

भोर समय
नदिया की धारा
में लगता है
लाल कमल सा।
लहरों के
झूले में झूले,
ऊपर नीचे,
कुछ डूबा सा।
गर्मी में क्यों
क्रोधित हो
बरसाए अग्नि।
सूरज खेले
आँख मिचौनी।

उषा किरण
हिमगिरि शिखरों पर
मणि माला बन
छा जाती।
अगले ही पल
पूरी घाटी
उजली धूप में
नहा जाती।
शाम सुहानी
सिंदूरी सी
करे निशा अगवानी।
सूरज खेले
आँख मिचौनी।

बादल, कुहरा,
शीत लहर सब,
बन गये
षड्यन्त्रकारी।
सेवा व्रती
रवि किरण तेरी
कुछ पल छिपी, पर
कभी न हारी।
नित्य भोर से
शाम ढले तक
लिखते श्रम की
नयी कहानी।
सूरज खेले
आँख मिचौनी।

रात्रि, दिवस,
ॠतुएँ हैं तुमसे,
तुमसे है
जीवन।
अपनी किरणों
से कर दो
आलोकित
मेरा मन।
इन्द्र धनुष के
रंगों से
भर जाए अवनि।
सूरज खेले

आँख मिचौनी।

1 comment:

  1. सूरज की आँख मिचौनी सर्दियों में चलती रहती है ...
    अच्छा गीत है ...

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