Wednesday, April 16, 2014

राजनीति

राजनीति

राजनीति बन गयी रोग है।
सेवा ना यह राज भोग है।


सेवा का व्रत लेने वालों,
राजनीति क्या मजबूरी है।
सत्ता मिलते ही जनता से,
बढ़ती क्यों जाती दूरी है।
सत्ता हित दो ध्रुव मिल जाते,
कैसा ये अद्भुत संयोग है।
राजनीति बन गयी रोग है।


बन जाते हैं नीति नियंता,
नित नव पासे चलते।
जनता की हालत पतली है,
चप्पल घिसते घिसते।
कागज़ पर कार्यक्रम चलते,
जन गण मन का यह दुर्योग है।
राजनीति बन गयी रोग है।


 लोकसभा के हारे दिखते,
राज्यसभा के अन्दर।
अंधे, गूँगे, बहरे हो गये,
गाँधी जी के बन्दर।
संविधान के मूल भाव को
हत कर लगता भोग है।
राजनीति बन गयी रोग है।

Friday, April 11, 2014

ग़ज़ल - पूछते हो.....


ग़ज़ल - पूछते हो.....  

पूछते   हो तुम पता भगवान का।
मिलना मुश्किल है यहाँ इन्सान का।

लाख मुश्किल झेलने के बाद भी,
है हौसला कायम अभी ईमान का।

हर तरफ़ कंक्रीट के जंगल उगे,
ढूँढ़ना मुश्किल हुआ मैदान का।

रुख कभी तो गाँव की भी ओर कर लें,
दर्द सुन लें खेत का, खालिहान का।

इस जहाँ में इक अकेली माँ ही है,
बिन कहे जो मन पढ़े संतान का।