Sunday, June 30, 2013

गुज़र गया सैलाब

गुज़र गया सैलाब

गुज़र गया सैलाब छोड़ कर
दर्द भरे अफ़साने।
चारों ओर बिछी लाशों में
कौन किसे पहचाने।

क्यों कुपित हुए केदार,
पर्वत क्यों इतना रूठा,
अकस्मात् फट पड़े मेघ,
नदियों का गुस्सा फूटा।

टूटी किसी वृद्ध की लाठी,
बिछु
गया आँखों का तारा।
कितने ही बच्चों के सिर से
छिन गया माँ बाप का सहारा।

जो जीवित हैं, उनके कितने
अपनों का कुछ पता नहीं।
बाट जोहतीं, सूनी आँखें,
अब तो आस भी टूट रही।

डूब गयी बस्ती की बस्ती,
उज
गये घर गाँव,
कैसे काटें ज़िन्दगी,
कहाँ मिलेगी ठाँव।

भूखे, नंगे, भीग रहे हैं,
नीले नभ के नीचे।
अब तो केवल आस प्रभु की
जीवन नैया खींचे।

ऐसे में कुछ तो अपनी भी
ज़िम्मेदारी बनती है।
भोजन, वस्त्र, दवा, द्रव्य की
वहाँ ज़रूरत महती है।

तन, मन, धन से, जो संभव हो,
आगे बढ़ कर मदद करें।
यही धर्म, कर्तव्य यही है,
जीव मात्र पर दया करें।

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